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________________ २४. प्रद्युम्नचरित : रत्नचन्द्रगणि रत्नचन्द्रगणि का प्रद्युम्नचरित' विवेच्य काल का अन्तिम पौराणिक महाकाव्य है । सतरह सर्गों के इस बृहत्काय काव्य में द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के सुविज्ञात पुत्र प्रद्युम्न का जन्म से निर्वाणप्राप्ति तक सम्पूर्ण चरित निरूपित करना कवि का अभीष्ट है, किन्तु जिस परिवेश में उसे प्रस्तुत किया गया हैं, उसमें वह काव्य के एक भाग में सिमट कर रह गया है । प्रासंगिक वृत्तों को अनावश्यक महत्त्व देने से काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य गौण बन गया है। इसका कारण यह है कि रत्नचन्द्र ने विवेकपूर्वक एक सुसम्बद्ध कथानक चुनकर भी उसे, जैसा वह जैन पुराणों में वर्णित है, नेमिचरित के सामान्य अवयव के रूप में प्रतिपादित किया है । प्रद्युम्नचरित का महाकाव्यत्व प्रद्युम्नचरित की रचना में उन बाह्य तथा आभ्यन्तर मानदण्डों का पालन किया गया है, जो भारतीय काव्यशास्त्र में महाकाव्य के लिये निर्धारित हैं । काव्य अभिप्रेत प्रतिपाद्य तथा फलागम की दृष्टि से प्रद्युम्न को इसका नायक मानना युक्त है यद्यपि, परिभाषा के अनुरूप, वह, काव्य में, प्राणवायु की भाँति आपादमस्तक व्याप्त नहीं है और कृष्ण के बहुमुखी विराट् व्यक्तित्व की तुलना में वह तुच्छ प्राणी है । काव्य में निरूपित कृष्णचरित की परिणति के सन्दर्भ में, कृष्ण को नायक के पद पर आसीन करना तो शास्त्रसम्मत नहीं क्योंकि काव्य के अनुसार, जैन धर्म में दीक्षित पात्रों के विपरीत कृष्ण मरकर नरक में दारुण यातनाएँ भोगते हैं, पर उन्हें नायक का समकक्ष उच्च पद देना किसी प्रकार असंगत नहीं है । और पर्दे के पीछे से समूचे काव्य का सूत्र संचालन करने वाले वीतराग महातपस्वी नेमिनाथ की भी कैसे उपेक्षा की जा सकती है ? महाकाव्य का नायक होने के नाते प्रद्युम्न को धीरोदात्त माना जाएगा पर बारीकी से देखने पर वह धीरोद्धत श्रेणी का नायक प्रतीत होता है, जो आत्मविकत्थना, बलप्रदर्शन, छल-कपट तथा कौतुकपूर्ण कार्यों में ही जीवन की सार्थकता मानता है । कृष्णचरित तथा उसके अंगभूत प्रद्युम्नचरित को जैन साहित्य ने अपने धर्म गहरे रंग में रंगकर, स्वानुकूल परिवेश में, ग्रहण किया है। जैनाजैन साहित्य के इस वृत्त की विश्रुतता असन्दिग्ध है । महाकाव्य के कथानक में जो पांच नाट्य- सन्धियां १. अहमदाबाद, सन् १९४२ २. उत्तरपुराण, पर्व ७१-७२, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, अष्टम पर्व |
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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