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जम्बूस्वामिचरित : राजमल्ल
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एक रूढ़ि बन गया था। राजमल्ल का युद्धवर्णन तत्कालीन काव्य-प्रणाली से प्रभावित है । माघ तथा उनके अनुवर्ती अधिकतर कवियों की भाँति राजमल्ल ने युवा जम्बूकुमार और विद्याधर रत्नचल के युद्ध के वर्णन में अधिकतर वीररसात्मक रूढियों का निरूपण किया है । युद्ध के अन्तर्गत धूलि से आकाश के आच्छादित होने, हाथियों की भिड़न्त, रथचक्रों की चरमराहट, धनुषों की टंकार, बाण-वर्षा से सूर्य के ढकने, कबन्धों के युद्ध, इन्हीं रूढियों का संकेत देते हैं । आठवें सर्ग में क्रमशः मृगांक और रत्नचूल तथा जम्बूकुमार आर रत्नचूल के द्वितीय युद्ध में उक्त रूढियों के अतिरिक्त वायव्य, आग्नेय तथा गारुड़ अस्त्रों और नागपाशों का खुलकर प्रयोग भी इसी प्रवृत्ति का द्योतक है। काव्य में वीररस की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति, सातवें सर्ग में, क्षात्र धर्म के निरूपण में हुई है।
क्रमोऽयं क्षात्रधर्मस्य सन्मुखत्वं यदाहवे। वरं प्राणात्ययस्तत्र नान्यथा जीवनं वरम् ॥ ७.३० ये दृष्ट्वारिबलं पूर्ण तूर्णं भग्नास्तदाहवे ।
पलायन्ति विना युद्धं धिक् तानास्यमलीमसान् ॥ ७.३२ काव्य में युद्धों का सविस्तार वर्णन शास्त्र का निर्वाहमात्र प्रतीत होता है । शृंगार की तरह हिंसा भी कवि की मूल शान्तिवादी वृत्ति के अनुकूल नहीं है । प्रथम युद्ध में विजयी होकर जम्बू का पश्चात्ताप से दग्ध होना तथा हिंसा की निंदा करना; कवि की वीररस के जनक युद्ध के प्रति सहज घृणा को बिम्बित करता है। इस युद्धनिन्दा के तुरन्त बाद जम्बूकुमार एक अन्य युद्ध में प्रवृत्त हो जाता है, इसे विडम्बना के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है ?
जम्बूस्वामिचरित में करुणरस की अभिव्यक्ति के लिए यथेष्ट स्थान है। शिवकुमार के मूच्छित होने पर उसके पिता चक्रवर्ती महापद्म के विलाप में तथा जम्बूस्वामी के प्रव्रज्या के लिए प्रस्थान करने पर उसकी माता तथा पत्नियों के रोदन में करुण रस का परिपाक हुआ है। रघुवंश अथवा शाकुन्तल की करुणा की-सी पैनी व्यंजना की आशा इन कवियों से नहीं करनी चाहिए।
हा नाथ मन्महाप्राण हा कन्दर्पकलेवर । अनाथा वयमद्याहो विनाप्यागा कृताः कथम् ॥ धिग्दैवं येन दत्तास्य तपसे बुद्धिरुत्कटा।
पश्यता स्म महादुःखं तत्कारुण्यमकुर्वता॥ १२.२०-२१ २३. वही, ७.२३१-२४१ २४. वही, ८.५०-५१,६७-७८ २५. तत्केवलं मया कारि हिंसाकर्म महत्तरम् ।
तत्केवलं प्रमादाद्वा यद्वेच्छता यशश्चयम् ॥ वही, ८.१८ प्राणान्तेऽपि न हंतव्यः प्राणी कश्चिदिति श्रुतिः । ८.१६