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पार्श्वनाथचरित : हेमविजयगणि
हैं, पुष्ट नितम्ब स्वर्गंगा के तटों का स्मरण कराते है और उसकी सुडोल जंघाएँ काम
के तरकश हैं ।
सीमन्तः स्थपुटः स्पष्टो भात्यस्या मूनि सुभ्रुवः । अध्वेव मुष्णतो विश्व पंचेषोः परिमोषिणः ॥ ३.१०७ शोभेते सुभ्रुवोऽमुष्याः सरलौ च भुजावुभौ ।
हृद्दमनकवन्धौ रतेः खागुणाविव ॥ ३.११४ नितम्बम्बे भातोsस्या, नितम्बिन्या: समुन्नते । शारदिकैर्धनै धौते कूले स्वर्गधुनेरिव ॥ ३.११६ उद्वृत्ते सरले जंघे विभातोऽस्या मृगीदृशः ।
न्यासीकृताविवात्मीयौ तूणीरौ मीनकेतुना ॥ ३.११७
विजय ने सौन्दर्य में वृद्धि करने वाले प्रसाधनों तथा आभूषणों का वर्णन भी अपने काव्य में किया है । कमठ से रमण करने को आतुर वसुन्धरा के शृंगार के वर्णन में इन दोनों का समन्वय है ।
सांजनं क्षेपयामास नेत्रयोः स्फारतारयोः । रुद्रदृग्दग्धपंचेषोरिवोज्जीवनभेषजम् ॥ १.१०७ चक्रे च चान्दनं चित्रं विचित्रं चित्रकृच्चिरम् । काम भूपप्रकाशाय प्रदीपमिव साऽलिके ।। १.१०८ विधाय बन्धनं बाढं सूत्रयामास सांगिकाम् । जगज्जेतुर्महानंगराज्ञः पटकुटीमिव ॥ १.१११
चरित्रचित्रण
पार्श्वनाथचरित के कथानक में पूरे दस जन्मों का वृत्त व्याप्त है । मरुभूति का जीव नाना योनियों में किस प्रकार द्वेष का फल भोग कर पार्श्व के रूप में उत्पन्न होता है, इसकी चर्चा पहले की गयी है । काव्य की मुख्य कथा में केवल चार पात्र हैं- पार्श्वनाथ, प्रभावती, अश्वसेन तथा वामा । काव्य का नायक होने के नाते पार्श्व के चरित्र का यथेष्ट विकास स्वाभाविक था । अन्य पात्रों के चरित्र की कुछ स्थूल रेखाएँ ही प्रस्फुटित हो सकीं है । पार्श्वचरित की जन्म-जन्मान्तरों में व्याप्ति तथा उसके अप्रतिम महत्त्व की पर्तों में दब कर उनके चरित धूमिल हो गये हैं । पार्श्वनाथ
काव्यनायक पार्श्वनाथ वाराणसी- नरेश अश्वसेन का पुत्र है । उसका चरित्र पौराणिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया है, अतः काव्य में उसके पुराण- प्रथित चरित्र से कोई भिन्नता अथवा नवीनता नहीं है । वह आद्यन्त पौराणिक पार्श्व की प्रतिमूर्ति है । पार्श्वनाथ दिव्यता से ओतप्रोत, चतुर्विध धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर हैं । काव्य