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जैन संस्कृत महाकाव्य से मोक्ष का अनन्त सुख प्राप्त करना है । इस संकुचित दृष्टिकोण ने उसकी कविता को धर्मवृत्ति की चेरी बना दिया है, किंतु उसका निन्ति मत है कि कविता की सार्थकता रसात्मकता में निहित है। गंगा की पावन धारा के समान वही काव्य तापहारी (आनन्दप्रद) है जिसका आधार तीव्र रसवत्ता हो । काव्य में रस की स्थिति के प्रति कवि के इस दृष्टिकोण के कारण पार्श्वनाथचरित में, चरितात्मक रचना होते हुए भी, विभिन्न रसों की तीव्र व्यंजना हुई है। जन्म-जन्मान्तरों, उत्तमअधम विविध स्थितियों, चित्र-विचित्र घटनाओं, रोमांचक प्रसंगों तथा कर्मसिद्धान्त से प्रेरित मानव के उत्थान-पतन से सम्बद्ध होने के नाते पार्श्वनाथचरित में विभिन्न मनोरागों के चित्रण का मुक्त अवकाश है। हेमविजय मनोभावों का कुशल चित्रकार है । यह तीव्र रसव्यंजना पार्श्वनाथचरित की उल्लेखनीय विशेषता है।
पार्श्वनाथचरित वैराग्य-प्रधान काव्य है। भोगत्याग इसके पात्रों की प्रमुख विशेषता है । सांसारिक सुखों की क्षणिकता, विषयों की विरसता तथा वैभव की नश्वरता से त्रस्त होकर उनमें संवेग का उदय होता है जिसके फलस्वरूप वे सब अन्ततः दीक्षा ग्रहण करते हैं, जो कवि के शब्दों में मुक्ति-रमणी की अग्रदूती है --- मुक्तिसीमन्निनी-दूतीं दीक्षां संवेगतोऽग्रहीत् (५.४३५) । अतः पार्श्वनाथचरित में शान्तरस की प्रधानता है। शान्तरस का स्थायी भाव शम अथवा निर्वेद काव्य-पात्रों की मूल वृत्ति है, जो अनुकूल भाव-सामग्री से सिक्त होकर शान्त के रूप में प्रस्फुटित होती है । अरविन्द, वज्रबाहु, स्वर्णबाहु, पार्श्व, सागरदत्त आदि सभी विविध मार्गों से शान्तरस के एक बिन्दु पर पहुँचते हैं। आकाश में हृदयग्राही मेघमाला को सहसा विलीन होता देखकर पोतना-नरेश अरविन्द का हृदय जीवन की क्षणिकता तथा वैषयिक सुखों की छलना से आहत हो जाता है। उसकी यह मनोदशा शान्तरस में व्यक्त हुई है।
मणिमाणिक्यसाम्राज्यराज्यरूपा अपि श्रियः। सर्वा अपि विलीयन्ते स्थासका इव तत्क्षणात् ॥ १.२०६ काः स्त्रियः के सुताः किञ्च राज्यं परिजनश्च कः ? काऽसौ सम्पत् पुनः कोऽहं सर्व मेघानुसार्यदः ॥ १.२०७ तन्मुधैव निमग्नोऽस्मि सुले सांसारिके भृशम् ।
यत्फलं मूलनाशाय रम्भाफलमिव ध्रवम ॥ १.२०८ अंगी रस शान्त के अतिरिक्त पार्श्वनाथचरित में शृंगार, रौद्र, भयानक, २२. यच्चक्रे चरितं चमत्कृतकृति श्रीपार्श्वनेतुर्मया
किन्त्वात्मानमनन्तनिवृतिमयं नेतुं पदं निर्वृतेः ॥ वही, ६.४७४ २३. जयन्ति कवयः सर्वे सुरसार्थमहोदयाः।
शिवाश्रया रसाधारा यद्गीगंगेव तापहृत् ॥ वही, १.६