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जैन संस्कृत महाकाव्य
पोषण एक चाण्डाल करता है। मुनि सुदत्त उनके पूर्व-भवों का वर्णन करता है । वे मरकर यशोमति की पत्नी की कोख से अभयरुचि तथा अभयमती के रूप में पैदा होते हैं । सातवें सर्ग में मुनि से अपने पिता तथा पितामही की, भवान्तरों में, दुर्गति का हृदयद्रावक वर्णन सुनकर यशोमति का मन आत्मग्लानि से भर जाता है । मुनि से प्रतिबोध पाकर वह तापसव्रत ग्रहण करता है। आठवाँ सर्ग जैन दर्शन के सिद्धांतों की विवेचना से भरपूर है । अभयरुचि से हिंसा के दुष्परिणाम सुनकर देवी चण्डमारी तथा मारिदत्त को भी अपने कुकृत्यों से ग्लानि होती है। नवें सर्ग में, मारिदत्त की प्रार्थना से, मुनि सुदत्त, चन्द्रमती, अमृतमती, मारिदत्त, अशोकलता आदि सबके पूर्व भवों का वर्णन करते हैं । मारिदत्त तथा देवी मुनि से तापस व्रत ग्रहण करते हैं और सभी मरकर सद्गति को प्राप्त होते हैं।
यशोधरचरित्र का कथानक ठेठ पौराणिक रूप में प्रस्तुत किया गया है । अतः इसमें अन्विति का अभाव है । जो कथासूत्र काव्य के तानेबाने के आधार हैं, वे बहुत ढीले तथा असंभव-से हैं । काव्य के तीन सर्ग मुख्य पात्रों के भवान्तों के वर्णनों तथा दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन पर व्यय कर दिये गये हैं। अन्य सर्ग भी गौण पात्रों के पूर्व-जन्मों के वर्णनों से भरे पड़े हैं । वस्तुतः, कवि का उद्देश्य कर्मसिद्धान्त की अपरिहार्यता का निरूपण करना है। काव्य के विविध पात्रों के जन्म-जन्मान्तरों के कर्मों और उनसे प्राप्त फलों का वर्णन करके इसी उद्देश्य की पूर्ति की गयी है। इस शैली से निरूपित कथानक में सुसम्बद्धता का अभाव स्वाभाविक है । सच तो यह है कि यशोधरचरित्र की कथावस्तु महाकाव्य के अधिक अनुकूल नहीं है, यद्यपि इसका पुराण-प्रथित रूप यही है। रसविधान
जैन पौराणिक काव्यों का परोक्ष लक्ष्य कविता के व्याज से आर्हत धर्म का प्रचार करना है। इसीलिये इनमें एक ओर पात्रों के पूर्व-भवों का सविस्तार वर्णन किया जाता है, जिससे उनके वर्तमान जन्म की सदसत् प्रवृत्तियों का पूर्व जन्मों के शुभाशुभ कर्मों के साथ संबंध जोड़कर कर्मवाद की अटलता का प्रतिपादन किया जा जा सके, दूसरी ओर पाठक में संवेगोत्पत्ति के लिए जगत् की असारता तथा धनवैभव की दुःखमयता का निरूपण किया जाता है। यशोधरचरित्र में इन दोनों विधियों को उद्देश्य की पूर्ति का साधन बनाया गया है। इसमें भोगों की भंगुरता तथा वैराग्य के शाश्वत सुख का सप्रयत्न प्रतिपादन किया गया है, जिससे अभिभूत होकर काव्य के प्रायः सभी पात्र शिवत्व-प्राप्ति के लिए प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं। इन प्रसंगों के चित्रण में स्वभावतः शान्तरस का पल्लवन हुआ है। इसलिए यशोधरचरित्र में शान्तरस की प्रधानता है। अपने पिता तथा पितामही की यातनाओं का रोमहर्षक वर्णन सुनकर अभयरुचि जन्म-मरण के दारुण दुःखों से त्रस्त हो जाता है। वह सर्वस्व छोड़कर