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________________ ३६४ जैन संस्कृत महाकाव्य सरल भाषा काव्य के लिए अनुपयुक्त नहीं है। ऋतु, उद्यान, प्रभात, सूर्योदय आदि के महाकाव्योचित वर्णन यशोधरचरित्र के कथानक को नीरसता से बचाने में सहायक हैं। इस प्रकार इसमें, नाटयसन्धियों को छोड़कर, महाकाव्य के सभी तत्त्व विद्यमान हैं । अतः यशोधरचरित्र को महाकाव्य मानना उपयुक्त है। यशोधरचरित्र की पौराणिकता यशोधरचरित्र पौराणिक महाकाव्य है। पौराणिक काव्यों की प्रमुख प्रवृत्ति, भवान्तरों का वर्णन, इसमें पग-पग पर परिलक्षित होती है। काव्य में प्राय: सभी पात्रों के पूर्व तथा भावी जन्मों का विस्तृत वर्णन किया गया है तथा वर्तमान के सदसत् कर्मों तथा प्रवृत्तियों को पूर्वजन्म से नियन्त्रित माना गया है। गन्धर्वराज के मन्त्री का पुत्र, जितशत्रु, यशोधर के रूप में जन्म लेता है। उसकी पत्नी गन्धर्वश्री अमृतमती बनती है। कुबड़ा हाथीवान पूर्वजन्म में गन्धर्वश्री का देवर भीम था। उसके साथ यौन सम्बन्ध होने के कारण अमृतमती उस विकलांग पर अनुरक्त हो जाती है । यशोधन, प्राणिवध के कारण निकृष्ट योनियों में पड़कर, दारुण यातनाएँ झेलता है तथा अजा के रूप में उत्पन्न अपनी माता को भोगता है। मुनिकन्या अपनी विपत्ति को पूर्वभव के किसी कुकर्म का फल मानती है। पौराणिक काव्यों की भाँति इसमें 'उक्तं च' कहकर पाराशर, उशना: आदि शास्त्रकारों के वचन, अहिंसा के समर्थन में, उद्धृत किये गये हैं । यशोधरचरित्र में आर्हत धर्म को सर्वोत्तम धर्म तथा अर्हत् को परम देव की पदवी दी गयी है। पौराणिक रचनाओं के समान यशोधरचरित्र की कथा का पर्यवसान शान्तरस में होता है। काव्य के प्रायः सभी पात्र पाप से परित्राण पाने तथा जीवन का चरम सुख प्राप्त करने के लिए चारित्र्यव्रत ग्रहण करते हैं। कवि-परिचय तथा रचनाकाल यशोधरचरित्र से इसके लेखक पद्मनाभ के सम्बन्ध में इतना ही ज्ञात होता है कि उसने जैन दर्शन का अध्ययन भट्टारक गुणकीत्ति के सान्निध्य में किया था तथा इन्हीं की प्रेरणा से वह काव्यकला में प्रवृत्त हुआ था। यशोधरचरित्र की रचना गोपाद्रि (ग्वालियर)-नरेश वीरमेन्द्र के राज्यकाल में', उसके महामात्य कुशराज के अनुरोध से की गयी थी। इस तथ्य का उल्लेख कवि ने प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका में किया है। सर्ग के प्रारम्भ में कुशराज का आग्रहपूर्वक प्रशस्तिगान करने का यही तात्पर्य है । पूर्व-विवेचित हम्मीरमहाकाव्य के प्रसंग में कहा गया है, यह तोमरवंशीय १. यशोधरचरित्र, ८.१८० २. वही, ६.१०७ ३. काव्यप्रशस्ति, ४ ४. इति यशोधरचारित्रे......"महाकाव्ये साधुश्रीकुशराजकारापिते....... ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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