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जैन संस्कृत महाकाव्य
प्रसन्न होकर उसे एक पुत्रदायिनी गुटिका प्रदान करता है। चतुर्थ सर्ग में गुटिका के प्रभाव से मंगलपुरनरेश को एक पुत्र की प्राप्ति होती है, जिसका नाम विजयचन्द्र रखा गया। यौवन के आने पर वह जंगम कल्पतरु की भाँति प्रतीत होने लगा। विजयचन्द्र ने एक दिन सभाभवन में उपहार-स्वरूप प्राप्त एक घोड़े की गति की परीक्षा के लिये ज्योंही रास खींची, वह तीर की भाँति भाग कर एक गहन वन में जा पहुंचा। विजयचन्द्र नौ दिन भूखा-प्यासा उस वन में असहाय भटकता रहा। दसवें दिन उसका परिचय मृगया-विहारी हस्तिनापुरनरेश गजभ्रम से हुआ, जो उसके पिता का मित्र था। वह गजभ्रम के आखेट के लिये घेरे गये निरीह मृगों को मुक्त करके उसे अहिंसा की ओर उन्मुख करता है। गजभ्रम कुमार को अपनी राजधानी ले जाता है । वह रत्नावली को नरमेधी योगी की क्रूरता से बचाने के लिये आत्मबलि देने को तैयार ही था कि वहाँ सहसा चेटक प्रकट होता है। चेटक उसे गारुड़ मन्त्र प्रदान करता है तथा हर जटिल स्थिति में सहायता का वचन देता है। विजयचन्द्र सर्पदंश से मृत कनकमाला को गारुड़ मन्त्र से पुनर्जीवित कर सबको विस्मित कर देता है । पंचम सर्ग में गजभ्रम कुमार को राज्यलक्ष्मी सौंपकर आचार्य आर्यरक्षित से तापसव्रत ग्रहण करता है। विजयचन्द्र सन्तान की भाँति प्रजा का पालन करता है । पिता का निमन्त्रण पाकर वह मंगलपुर लौट आता है । छठे सर्ग में रत्नांगद का दूत राजकुमारी सुलोचना के स्वयम्वर में जयचन्द्र को निमन्त्रित करने के लिये आता है । जयचन्द्र वृद्धावस्था के कारण स्वयं न जाकर राजकुमार को रत्नपुर भेजता है । सप्तम सर्ग में स्वयम्वर का रोचक वर्णन है, जो रघुवंश के इन्दुमतीस्वयम्वर से प्रेरित तथा प्रभावित है। सुलोचना समस्त राजाओं को छोड़कर विजयचन्द्र का वरण करती है। अष्टम सर्ग में, प्रत्याख्यान से अपमानित राजा, कश्मीरराज प्रताप के नेतृत्व में, उस पर आक्रमण करते हैं किन्तु विजयश्री भी विजय को ही प्राप्त होती है। सर्ग के शेष भाग में सुलोचना के हरण तथा असंख्य विचित्र तथा रोमांचक, अतिमानवीय एवं अलौकिक घटनाओं के अनन्तर उसके पुनर्मिलन का अतीव विस्तृत वर्णन है । नवम सर्ग में विजयचन्द्र सुलोचना के साथ यौवन के मादक भोगों में लीन हो जाता है। एक दिन वह अपने महल में तेजपिण्ड से उद्भूत एक कचनवर्णी युवती देखता है । केवलज्ञानी मुनि जयन्त से यह जानकर कि वह संयमश्री थी, जो उसे विषयों से विमुख करने आयी थी, वह राजपाट छोड़कर, सुलोचना तथा मन्त्रियों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करता है और परमसिद्धि को प्राप्त होता है।
पौराणिक काव्य होने के नाते श्रीधरचरित में वर्णनों तथा विषयान्तरों का १९. यस्मै कस्मै तथापीदं राज्यं देयं मया प्रगे । श्रीधरचरित, ६.२०४ २०. प्रभुश्रीमत्पाच्चिरणसुरमाणिक्यलभना
चिरं भेजे सौख्यं शिवपदगतः सम्मदमयम् ॥ वही, ६.२४६