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जैन संस्कृत महाकाव्य
न विरसासु मरुष्विव हस्तिनां भवति यासु रतिः सुखकृद् नृणाम् । बुधजनैः पथिकाः पथि पाप्मनः सुनयना नयनाशकृतः स्मृताः ॥ ५.११
विजयप्रशस्ति में रौद्र, वात्सल्य तथा करुण अंगी रस के पोषक हैं, यद्यपि रौद्र की शान्तरस से स्पष्ट विसंगति है। हेमविजय ने रौद्ररस को पल्लवित करने की चेष्ट भी नहीं की है। स्वप्नदृष्ट सिंह वन्य हाथियों को डराने के लिये दहाड़ छोड़ता हुआ, आँखों से आग बरसाता हुआ और जीभ लपलपाता हुआ साक्षात् रौद्र रस प्रतीत होता है।
स्तम्बरमत्रासनिदाननादक्षुब्धाखिलक्षोणितलं सहेलम् । सोद्योतविद्युद्युतिजित्वराक्षिद्वयीकमद्वैततरोवरोरुम् ॥ २.२ गुंजातुले तालुनि पद्मपत्रमित्रं रसज्ञांकुरमादधानम् । व्यात्ताननं काननकुंजराजं रौद्रं रसं मूतमिवोग्रमूत्तिम् ॥ २.३
शैशव-वर्णन वात्सल्य की निष्पत्ति की उर्वर भूमि है। शिशु जयसिंह की बालकेलियों के चित्रण में वात्सल्यरस की मधुर अभिव्यक्ति हुई है। वह अपनी भोली तथा अस्पष्ट वाणी, बालसुलभ चपलताओं तथा अन्य चेष्टाओं से माता-पिता का मन मोहित कर लेता है।
रिखन् प्रजल्पन्निपतन् प्रपश्यन्नश्नन् विनिघ्नन् प्रहसन् पिबंश्च । पित्रोदेऽभूज्जसिंहशावः सतां समस्तं हि मुदा निधानम् । २.५६ हंसीव फुल्लं नवपुण्डरीकं हृष्टा हृदाम्बाऽथ तमालिलिंग। पुष्पं सदामोदमिवालिनी तं माता मुहुश्चारु चुचुम्ब मूनि ॥ २.६७
मध्ययुगीन साहित्य में करुणरस का चित्रण एक निश्चित ढर्रे पर हुआ है। उसका आदर्श भवभूति हैं, जिन्हें करुण रस के मुकुटहीन सम्राट् के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है । भवभूति के समान मध्यकालीन कवियों की करुणा तीव्रता तथा मार्मिक व्यंजना से शून्य हैं । क्रन्दन को ही उसका पर्याय मान लिया गया है । विजयप्रशस्ति का करुणरस भी इसी कोटि का है। आचार्य हीरविजय की मृत्यु से उद्भूत व्यापक शोक को कवि ने विजयसेन तथा श्रावकों के विलाप के रूप में व्यक्त किया
विहाय नित्यं मलिनामिहत्यां तनुं मनोज्ञां च सुपर्वयोनेः। गुरुर्गुणी ग्रामधुनी विमुच्य नभोनदी हंस इव प्रपेदे ॥ १४.३६ पदे पदे मूर्च्छदपारबाष्पा महेभ्यमुख्या गृहमेधिनश्च । महोत्सवाडम्बरसुन्दरं ते सुरा इवैनां शिबिकामथोहुः ॥ १४.४१ सगन्धसारागुरुमुख्यदारुभराचितायां शुचिमच्चितायाम। तदाथ संस्कारमकार्षुरेते प्रभोस्तनोः किं तमसो निजस्य । १४.४२ यहाँ आचार्य के अनुयायियों का मनोगत शोक स्थायीभाव है। हीरविजय