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________________ ३३८ जैन संस्कृत महाकाव्य के समूचे परम्परागत तत्त्व विद्यमान नहीं हैं । मंगलाचरण, सर्ग-संख्या उनके नामकरण, काव्य-शीर्षक, छन्दों के विधान आदि महाकाव्य के बाह्य तत्त्वों में सर्वविजय ने शास्त्र का यथावत् पालन किया है। चित्रकूट तथा काव्यनायक के जन्मस्थान ज्यायपुर के विस्तृत वर्णन से नगर-वर्णन की रूढि की पूर्ति की गयी है। पर्वतमाला सन्ध्या, चन्द्रोदय, सूर्योदय, आदि वस्तुव्यापार के ललित वर्णन एक ओर काव्य में वैविध्य का संचार करते हैं और दूसरी ओर काव्य-शैली के प्रति कवि की निष्ठा के सूचक हैं। ___ महाकाव्य के आन्तरिक स्वरूप विधायक तत्त्वों की दृष्टि से सुमतिसम्भव की स्थिति मोमसौभाग्य से अधिक भिन्न नहीं हैं। सोमसुन्दर के समान प्रतिष्ठित इभ्य कुल में उत्पन्न सुमतिसाधु इसके नायक हैं जिन्हें, उनकी शमवृत्ति के प्राधान्य के कारण, धीरप्रशान्त मानना अधिक उचित होगा । काव्य में वर्णित उनका चरित, गरिमा तथा ख्याति के कारण, शास्त्रीय विधान के अनुकूल है । चतुर्वर्ग में से सुमतिसम्भव का उद्देश्य धर्म है। धनकुबेर जावड़ की धर्मचर्या के निरूपण के द्वारा मानव जीवन में, अर्थ तथा काम को मर्यादित करते हुए, धर्म की सर्वोपरि महत्ता का प्रतिपादन करना कवि का अभीष्ट है । काव्य की भाषा में प्रसाद तथा प्रौढ़ता का मनोरम मिश्रण है । चित्रकाव्य के द्वारा सर्वविजय ने अपनी भाषा में चमत्कृति उत्पन्न करने का प्रयास भी किया है । इस स्थूल शरीर के होते हुए भी सुमतिसम्भव आत्मा से प्रायः पूर्णतया वंचित है । महाकाव्योचित रसवत्ता का न होना इसकी बहुत बड़ी त्रुटि है । चरित्र-विश्लेषण के प्रति भी कवि अधिक सजग नहीं है। परन्तु सुमतिसम्भव को, उक्त तत्त्वों के अभाव में भी, महाकाव्य मानना उचित होगा।' प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका में कवि ने इसे आग्रहपूर्वक महाकाव्य की संज्ञा दी है । कवि-परिचय तथा रचनाकाल __सुमतिसम्भव के कर्ता के विषय में काव्य से केवल इतना ही ज्ञात होता है कि वह पण्डित शिवहेम का शिष्य तथा जिनमाणिक्य का छात्र था। सर्वविजय ने प्रव्रज्या शिवहेम से ग्रहण की थी, किन्तु उसके विद्यागुरु जिनमाणिक्य थे । शिवहेमपण्डितानां शिष्यशिशुचकेन्द्रचन्द्राणाम् । श्रीजिनमाणिक्यानां छात्रः शास्त्रं व्यधत्तेदम् ॥ ८.४५ सर्वविजय तपागच्छ का अनुयायी था। उसकी मुनि परम्परा तपागच्छ के पचासवें गच्छधर आचार्य सोमसुन्दरसूरि तक पहुँचती है। पूर्ववर्ती गच्छनायकों के जीवन-वृत्त पर काव्य लिखने की परम्परा जैन साहित्य में चिरकाल से चली आ रही है। २. न्यूनमपि यः कश्चिदंगैः काव्यमत्र न दुष्यति । यापात्तेषु सम्पत्तिराराधयति तद्विदः । काव्यादर्श, १.२०
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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