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जैन संस्कृत महाकाव्य
मैं बाधक होते हैं, अत: कुमारपालचरित में उनका बहुत कम प्रयोग किया गया है । विजयी जयसिंह का यह प्रशस्तिगान यमक पर आधारित है ।
जीव जीवसम । विद्यया सदानन्द । नन्दनसमान । समान ।
नन्द नन्दसम | दाननिरस्तकर्ण । कर्णसुत । सिद्धनरेन्द्र ॥१.२.६७ अर्थालंकारों में रूपक, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, सहोक्ति, अतिशयोक्ति, व्याजस्तुति, विरोध, परिसंख्या, समासोक्ति आदि प्रसिद्ध अलंकारों को भाव प्रकाशन का माध्यम बनाया गया है । कुमारपाल के पूर्व-भव के वर्णन के प्रसंग में रूपक का यह रोचक प्रयोग दर्शनीय है ।
गुरुवचनसुधाभिस्ताभिरेवं प्रसिक्तो
हृदयवर्ती निर्वat कोपवह्निः । ६.२.११
योगी देवबोध की आत्मविकत्थना अतिशयोक्ति में प्रकट हुई है । उसकी वाक्पटुता के समक्ष बृहस्पति, ब्रह्मा और महेश्वर भी मूक हैं ।
बृहस्पतिः किं कुरुतां वराको ब्रह्मापि जिह्मो भवति क्षणेन । मयि स्थिते वादिकन्द्रसिहे नेवाक्षरं वेत्ति महेश्वरोऽपि ॥५.३.४ निम्नोक्त पद्य में कुमारपाल की प्रीति, प्रतीति प्रभुता तथा प्रतिष्ठा का - क्रमश: गुरु, धर्म, शरीर तथा त्रिलोकी के साथ सम्बन्ध होने के कारण यथासंख्य
अलंकार है ।
प्रीतिः प्रतीतिः प्रभुता प्रतिष्ठा तस्याभवद् भूमिपतेः प्रकृष्टा । गुरौ च धर्मे वपुषि त्रिलोक्यां पक्षे सिते चन्द्रकलेव नित्यम् ॥ १०.१.२ आम्बड़ ने कोंकणराज के छत्र के साथ ही उसकी कीर्ति को भूमिसात् कर - दिया । यह सहोक्ति है ।
की साकं कंकपत्रेण धात्र्यां शत्रोश्छत्रं पातयामास पश्चात् । ३.३.४६
छन्द योजना
छन्दों के प्रयोग में कुमारपालचरित्र में घोर अराजकता है । इसके अधिकतर सर्गों में ही नहीं, वर्गों में भी, नाना वृत्तों का प्रयोग किया गया है। जिन स तथा वर्गों में एक छन्द का प्राधान्य है, उनमें भी कवि ने बीच-बीच में अन्य छन्दों - का समावेश कर ऐसा घोटाला कर दिया है कि इस द्रुत छन्द-परिवर्तन से पाठक मांझला उठता है । छन्द-योजना में कवि ने जिस श्रम का व्यय किया है, यदि उसका उपयोग वह अन्यत्र करता तो उसकी रचना अधिक आकर्षक बन सकती थी ।
कुमारपालचरित में, कुल मिलाकर, तेईस छन्द प्रयुक्त हुए हैं, जो इस प्रकार हैं— अनुष्टुप् इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, शालिनी, स्वागता, भुजंगप्रयात, द्रुतविलम्बित, रथोद्धता, वसन्ततिलका, मालिनी, हरिणी, शिखरिणी, मन्दाक्रान्ता,