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कुमारपाल चरित : चारित्रसुन्दरगणि
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निम्नलिखित पंक्तियाँ जिनमें वीररस की मनोरम छटा दृष्टिगत होती है, उक्त प्रवृत्ति का आभास देती हैं ।
आलोक्यारान्मन्त्रिराट् तं समेतमारुह्योच्चैर्हस्तिनं प्रत्यधावत् ।
विश्वां विश्वां व्यापयन्नात्मसैन्यैर्यद्वद्दर्पात्पन्नगं वैनतेयः ॥ ३.३.२४ पूर्ण पूर्ण कहलानां निनादे र्युद्धारम्भे व्योम सैन्यद्वयस्य । दुग्धं दुग्धान्तर्गतं लक्ष्यते नो यद्वत्तद्वत्सैन्ययुग्मं तदासीत् ॥। ३.३.२५ मुंचन्त्येके चाट्टहासान् भटौघा नश्यन्त्येके कातरा राववन्तः । तन्वन्त्येके युद्धमिद्धोद्धतांगाः पश्यन्त्येके पातितानात्मनेव ॥ ३.३.२७
पांचवें सर्ग में कुमारपाल के दिवंगत माता-पिता, शैव योगी के मन्त्रबल से प्रकट होकर, उसके धर्म परिवर्तन के कारण अपनी दुरवस्था का वर्णन करते हैं । उनके गलित शरीर के चित्रण में बीभत्स रस की प्रगाढ़ निष्पत्ति हुई है ।
दुर्गन्धरुद्धाखिल दिग्विभागौ कुष्ठेन नष्टावयवो कृशांगौ ।
भृशं स्रवत्पूतिभरावलिप्तौ विकीर्णकेशावृतदीनवक्त्रौ ।। ५.१.२७ नाना प्रहारव्रणजर्जरांगो पृष्ठिदेशे दृढबद्धहस्तौ ।
दीनं रटन्तौ च निरीक्ष्य तौ ते शोकं च कुत्सां च दधुर्नृपाद्याः ।। ५.१.२८ कुमारपाल के कुष्ठगलित विकलांग माता-पिता यहाँ आलम्बन विभाव हैं। उनके शरीर की दुर्गंध, अंगों से टपकती पीक, अस्त-व्यस्त केश, म्लान मुख तथा आक्रन्दन उद्दीपन विभाव हैं । उपस्थित लोगों के द्वारा शोक तथा कुत्सा प्रकट करना अनुभाव हैं। आवेग, व्याधि, मोह आदि व्यभिचारी भाव हैं । इनसे समर्थित स्थायी भाव, जुगुप्सा, बीभत्सरस में परिणत हुआ है ।
इसके विपरीत हेमाचार्य के ध्यानयोग से पुनः भूलोक में आकर वे अपने देवलोक के सुखमय जीवन का वर्णन करते हैं और उस सुख-शान्ति को कुमारपाल के नव-धर्म का फल मानते हैं । उनके यान के अवतरण का वर्णन अद्भुत रस की सृष्टि करता है ।
विजितविधुरुचिभ्यां पार्श्वयोश्चामराभ्याम् अतिललिततनुभ्यां बीज्यमानं सुरीभ्याम् । शिरसि विधृतचंच च्छत्र मालोक्य लोकाः किमिदमिति मुहूर्तं तेऽभवन्मो हवन्तः ॥ ५.२.११
छठे सर्ग में देवलदेवी, पाटन आकर, पति द्वारा किये गये अपने अपमान की दुःखपूर्ण कहानी अपने भाई कुमारपाल को सुनाती है । बहनोई अर्णोराज की उद्दण्डता तथा दुर्व्यवहार की गाथा सुन कर कुमारपाल क्रोध से पागल हो जाता है । उसकी क्रोधपूर्ण चेष्टाओं के चित्रण में रौद्र रस के अनुभावों की बांकी झांकी देखने को मिलती है ।