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________________ सप्तसन्धानमहाकाव्य : मेषविजयगणि स्वभावोक्ति (१.१६) उल्लेखनीय हैं। सप्तसंधान का मूल पसंकार मेष है, उपर्युक्त विवेचन में इसका अनेक बार संकेत किया गया है। काव्य की नानार्थकता की कुंजी श्मेष ही है । मेष के साथ कवि ने अन्य अलंकार गूंथकर अलंकारों के संकर की सृष्टि की है। अतः सप्तसंधान में श्लेष के अतिरिक्त कहीं अन्त्यानुप्रास तथा काव्यलिंग का मिश्रण है (१.३), कहीं उपमा और व्याजस्तुति का (१.५), कहीं अर्थान्तरन्यास, यमक तथा विरोष मिश्रित हैं (१.६) कहीं रूपक, उपमा, कायलिंग तथा समासोक्ति (१.६०) । अलंकारों के इस संकर की पराकाष्ठा निम्नोक्त पद्य में है, जिनमें श्लेष के साथ यमक, उपमा; विरोधाभास, कायलिंग तथा अतिशयोक्ति का मिश्रण दिखाई देता है। नासत्यलक्ष्मी वपुषाऽतिपुष्णन्नासत्यलक्ष्मी धरते स्वरूपात् । सत्यागमार्थ अयते यतेभ्यः सत्यागमार्थ लभते फलं सः ॥१.५१ मघा मेघविजय ने छन्दों के विधान में शास्त्रीय नियमों का यथावत् पालन किया है। प्रथम सर्ग उपजाति में निबद्ध है । सर्ग के अंत में मालिनी तथा सग्धरा का प्रयोग किया गया है। द्वितीय सर्ग में इंद्रवजा की प्रधानता है। सर्गान्त के पद्य शिखरिणी; मालिनी, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति तथा शार्दूलविक्रीडित में हैं। तृतीय तथा चतुर्थ सर्ग की रचना में वसन्ततिलका का आश्रय लिया गया है । अंतिम पद्यों में क्रमशः स्रग्धरा तथा शार्दूलविक्रीडित प्रयुक्त हुए हैं । पांचवें तथा छठे सर्ग का मुख्य छंद क्रमशः हरिणी तथा अनुष्टुप् है। पांचवें सर्ग का अंतिम पद्य स्रग्धरा में निबद्ध है। सातवें सर्ग में जो छह छंद प्रयुक्त हुए हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-हरिणी, शार्दूलविक्रीडित वसन्ततिलका, इंद्रवज्रा, स्वागता तथा शिखरिणी । अंतिम दो सौ के प्रयणन में क्रमशः द्रुतविलम्बित तथा उपजाति को अपनाया गया है। इनके अंत में शार्दूलविक्रीडित, वंशस्थ तथा स्रग्धरा छंद प्रयुक्त हुए हैं । सप्तसंधान में कुल तेरह छंदों का प्रयोग किया गया है। इनमें उपजाति का प्राधान्य है। मेघविजय की कविता, दिक्कुमारी की भाँति गूढ़ समस्याएँ लेकर उपस्थित होती है (२.७)। उन समस्याओं का समाधान करने की कवि में अपूर्व क्षमता है। इसके लिये कवि ने भाषा का जो निर्मम उत्पीडन किया है, वह उसके पाण्डित्य को व्यक्त अवश्य करता है, किन्तु कविता के नाम पर पाठक को बौद्धिक व्यायाम कराना; भाषा तथा स्वयं कविता के प्रति अक्षम्य अपराध है । अपने काव्य की समीक्षा की कवि ने पाठक से जो आकांक्षा की है (काव्येक्षणाद्वः कृपया पयोवद् भावाः स्वभावात् सरसाः स्यु:-१/१५), उसकी पूर्ति में उसकी दूरारूढ शैली सबसे बड़ी बाधा है। पर यह स्मरणीय है कि सप्तसंधान के प्रणेता का उद्देश्य चित्रकाव्य-रचना में अपनी
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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