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जैन संस्कृत महाकाव्य
दिग्विजय तेरह सर्गों का महाकाव्य है । प्रथम सर्ग में चौबीस पचों के लम्बे मंगलाचरण तथा सज्जन-प्रशंसा एवं खलनिन्दा आदि काव्य-रूढ़ियों के पश्चात् नामानुसार जम्बूद्वीप का विस्तृत वर्णन है, जो जैन मान्यताओं के परिवेश में वेष्टित है। सर्ग के अन्त में सुमेरु का रोचक वर्णन है। द्वितीय सर्ग में भारतवर्ष की स्वर्ग से श्रेष्ठता का वर्णन तथा आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के चरित-जन्म से निर्वाणप्राप्ति तक - का संक्षिप्त निरूपण है। तृतीय सर्ग में; कथानायक के मुनिवंश के मूल-पुरुष भगवान महावीर की चारित्रिक दिग्विजय के अन्तर्गत उनके जन्म से लेकर निर्वाण तक की समूची घटनाओं तथा उपलब्धियों को सशक्त भाषा में निबद्ध किया गया है । चतुर्थ सर्ग में तपागच्छ के पूर्ववर्ती आचार्यों की परम्परा के निरूपण के पश्चात समाज के नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नयन के लिये विजयदेवसरि की धार्मिक दिग्विजय का वर्णन है। देवानन्दमहाकाव्य में वर्णित विजयदेवसरि के चरित की यहां संक्षेप में आवृत्ति की गयी है । विजयदेव द्वारा वीरविजय (विजयप्रभ का दीक्षा-पूर्व नाम) को पट्टलक्ष्मी का पाणिग्रहण कराने से अहमदाबाद का समूचा संघ आनन्दित हो जाता है। उत्तर शाविजय-वर्णन नामक पंचम सर्ग में काव्यनायक विजयप्रभसरि मोह को पराजित करने के लिये, धर्मसेना के साथ, उत्तरदिशा की ओर प्रस्थान करते हैं । विमलगिरि पर आदिदेव की वन्दना करने के पश्चात् उन्होंने अहमदाबाद में अपना आध्यात्मिक शिविर डाला तथा ज्ञान, सदाचार आदि के अमोष अस्त्रों से काम को ध्वस्त किया। उन्होंने शंखेश्वर पार्श्वनाथ की अर्चना की और ग्रन्थकर्ता मेघविजय को वाचक पद प्रदान किया। पार्श्वप्रतिमा के अभिषेक के लिये वे पर्वतीय मार्ग से उदयपुर को प्रस्थान करते हैं । सूर्योदय के वर्णन से सर्ग समाप्त हो जाता है । छठे सर्ग में उदयपुर का शासक, विजयप्रभ का राजसी स्वागत करता है। वे अपने विहार से मिथ्या मतों का निरसन तथा जिनमत की प्रतिष्ठा करते हैं। चित्रकाव्य तथा पादयमक से आच्छादित सप्तम सर्ग में वे पश्चिम दिशा को विजित करने के लिये प्रस्थान करते है। सादड़ी, नारायणपुर, माल्यपुर तथा संग्रामपुर होते हुए उन्होंने मरुभूमि में पदार्पण किया। उनके आगमन से मरुदेश भौतिक आपदाओं से मुक्त हो गया । आठवां सर्ग शिवपुरी (सिरोही) तथा शंखेश्वर पार्श्वनाथ की प्रतिमा के विस्तृत वर्णन से परिपूर्ण है । नवें सर्ग के आरम्भ में चन्द्रोदय के
७. मुदमुदवहदुग्नः श्राद्धसंघः समग्रो . __ रविमिव दिवसश्रीसंयुतं कोकलोकः । दिग्विजयमहाकाव्य, ४.७१ ८. अपहृता प्रभुणा रचिरन्दवी प्रतिहतं च जनार्जनशासनम् ।
नयविशेषयुजा भूरामुज्ज्वलं भुवि हितं विहितं मतमाहतम् ॥ वही, ६.५३