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स्थूलभद्रगुणमालाचरित्र : सूरचन्द्र
१६१ वस्तुतः स्थूलभद्रगुणमाला का कथानक अनन्त वर्णनों के गोरखधन्धे में उलझा एक अदृश्य तन्तु हैं । सौन्दर्य-चित्रण तथा ऋतुवर्णन पर क्रमशः तीन तथा पांच सर्ग अपव्यय करना कवि की कथा-विमुखता का उग्र परिचायक है । 'भोग की अति की परिणति अनिवार्यतः उसके त्याग में होती है', अपने इस सन्देश को कवि ने सरस काव्य के परिधान में प्रस्तुत किया है, किन्तु उसे अधिक आकर्षक बनाने के आवेश में वह काव्य में सन्तुलन नहीं रख सका । ऋतु-वर्णन वाले पांच सर्गों का यत्किचित् कथानक से कोई विशेष सम्बन्ध है, यह कहना भी सम्भव नहीं है । उन्हें, बिना कठिनाई के, आवश्यकतानुसार किसी भी काव्य में खपाया जा सकता है । उपर्युक्त दोनों वर्णनों तथा नन्दराज की राजधानी पाटलिपुत्र और उसके पराक्रम की राई-रत्ती के वर्णन से काव्य में वस्तु-वर्णन के अनुपात एवं महत्त्व के प्रति कवि के दृष्टिकोण का पर्याप्त आभास मिलता है। काव्य में वर्णित सभी उपकरणों सहित, इसे छह-सात सर्गों में सफलतापूर्वक समाप्त किया जा सकता था। किन्तु सूरचन्द्र की सन्तुलनहीनता तथा वर्णनात्मक अभिरुचि ने इसे सतरह सर्गो का बृहद् आकार दे दिया है । जब तक वह किसी विषय के सूक्ष्मतम तत्त्व से सम्बन्धित अपनी कल्पना का कोश रीता नहीं कर देता, वह आगे बढ़ने का नाम नहीं लेता । यह सच है कि इन वर्णनों में कवि-प्रतिभा का भव्य उन्मेष हुआ है, किन्तु उनके अतिशय विस्तार ने प्रबन्धत्व को नष्ट कर दिया है । सूरचन्द्र क्रमागत काव्यधारा के पाश से नहीं बच सके। रसविधान
सूरचन्द्र साहित्यशास्त्रियों के उस वर्ग के अनुयायी हैं, जिन्होंने रसों की संख्या नौ मानी है। सरस्वती-स्तुति तथा अन्यत्र नौ रसों के संकेत के अतिरिक्त कोश्या की प्रकृति के स्वरूप के निरूपण में उन्होंने शृंगार आदि नौ रसों का स्पष्ट नामोल्लेख किया है । स्थूलभद्रगुणमाला में रसराज शृंगार की प्रधानता है, भले ही उसकी परिणति शान्तरस में हुई हो । श्रृंगार को प्रस्तुत काव्य का अंगी रस मानने में हिचक नहीं हो सकती। शृंगार में भी संयोग की अपेक्षा वियोग का चित्रण अधिक हुआ है। कोश्या की नियति कुछ ऐसी है कि उसे मिलन के सुख की अपेक्षा विरह की व्यथा अधिक झेलनी पड़ती है। स्थूलभद्रगुणमाला में विप्रलम्भ की कई प्रसंगों में समर्थ अभिव्यक्ति हुई है । स्थूलभद्र के प्रव्रज्या ग्रहण करने पर कोश्या के विरह-वर्णन में किन्तु काव्य का स्वाभाविक अन्त यहीं प्रतीत होता है । सम्भवतः, स्थानाभाव के कारण लिपिकार ने पुष्पिका को छोड़ दिया है ! ...................... -जैन संस्कृत-महाकाव्य (टंकित प्रति), पृ० ३२४ १४. दत्ते नवरसान् पूर्णान साधिता किं. न यच्छति । स्थूलभद्रगुणमाला, १८.... .:., वही, ४. ३७-३८. ...