SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थूलभद्रगुणमालाचरित्र : सूरचन्द्र १८६ सागर में डूबी कोश्या को संगम की नौका से उबारने का अनुरोध करती है। तृतीय अधिकार में कोश्या का नखशिख-प्रत्येक अंग तथा उपांग का-सविस्तार वर्णन है । चतुर्थ अधिकार में पमिनी से कोश्या के रूप तथा गुणों का पुनः वर्णन'२ सुनकर स्थूलभद्र के हृदय में काम का उद्रेक होता है और वह उसके प्रति अभिसार करता है। पांचवें अधिकार में कोश्या अपनी कामपूर्ण चेष्टाओं से मन्त्रिपुत्र को वशीभूत कर लेती है । यहां उनके प्रेममिलन का विस्तृत वर्णन हुआ है। छठे अधिकार में नवदम्पती की सम्भोग-केलि तथा प्रभात का वर्णन है। प्रणय-समागम के अन्तर्गत पुनः कोश्या के रूप का वर्णन किया गया है । सातवें अधिकार में धूर्त वररुचि के षड्यंत्र के कारण नन्दराज की विमुखता के फलस्वरूप समूचे परिवार की मृत्यु अवश्यम्भावी जानकर शकटाल आत्मबलिदान से परिवार की रक्षा करने का निश्चय करता है। उसके आदेश से श्रीयक, न चाहता हुआ भी, भरी सभा में, पिता (शकटाल) का शिरश्छेद कर देता है । जिसका पुत्र इतना स्वामिभक्त है, वह स्वयं कैसे राजद्रोही हो सकता है' इस वास्तविकता का भान होने पर नन्दराज अपने पूर्वाचरण पर पश्चाताप करता है। वह श्रीयक की राजभक्ति से प्रसन्न होकर उसे मन्त्रिपद पर प्रतिष्ठित करने का प्रस्ताव करता है परन्तु वह अग्रज स्थूलभद्र को मन्त्रिमुद्रा का वास्तविक अधिकारी मानता है । अष्टम अधिकार में नन्द स्थूलभद्र को औपचारिक रूप से मन्त्री पद स्वीकार करने का अनुरोध करता है । पर उसे पिता के वध से इतना दु:ख तथा अपनी विषयासक्ति के इतनी ग्लानि होती है कि वह सर्वस्व छोड़ कर वहां से चुपचाप विहार कर जाता है । अग्रज की संवेगोत्पत्ति के पश्चात् श्रीयक मन्त्रित्व का दायित्व सम्भालता है । राजा, वररुचि को उसके दुर्व्यसनों के कारण, राज्य से बहिष्कृत कर देता है। प्रायश्चित्त के लिये अपु-पान से उसका प्राणान्त हो जाता है । यह वस्तुतः पितृवष का बदला लेने के लिये श्रीयक तथा कोश्या की योजना का परिणाम था। अब मार्ग निष्कण्टक होने से श्रीयक नीतिपूर्वक अपने पद का निर्वाह करता है । नवें अधिकार में स्थूलभद्र के प्रव्रजित होने का समाचार सुनकर कोश्या का प्रेमिल हृदय तड़प उठता है। इस सर्ग में उसकी विरह व्यथा का विस्तृत वर्णन है, जो मार्मिक न होता हुआ भी, उसकी मानसिक विकलता को व्यक्त करने में समर्थ है। अगले पांच सों में पद्मिनी, कोश्या के मनोविनोद तथा समय-यापन के लिये छह परम्परागत ऋतुओं का वर्णन करती है। ऋतुओं के बीतने पर भी जब उसका प्रिय नहीं पाया तो कोश्या निराश होकर; २१. स्वसंगमतरण्या त्वं पारमुत्तारय प्रमों । २.१६५ १२.रमादिमा गुणः पूना पेण सरसा मशम। अपरलहवती प्राप्य मा प्रतीजस्व पण्डित ॥ ४.१००
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy