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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य कृत्रिमता, अतिशय अलंकरण तथा चित्रकाव्यात्मक कलाबाजियों को ग्रहण नहीं किया। सम्भवतः उसके उद्देश्यों ने उसे इस चाकचिक्य के मोह से बचने का सम्बल दिया है । दूसरे का ऋण लेकर भी अपनी मूल पूंजी को कैसे सुरक्षित रखा जा सकता है, भ. बा. महाकाव्य इसका उत्तम उदाहरण है। रसविधान भ. बा. महाकाव्य जैन साहित्य की उन इनी-गिनी कृतियों में है, जिनकी रचना प्रत्यक्षतः धार्मिक प्रयोजन से नहीं अपितु सहृदय को रसास्वादन कराने के लिये हुई है । इसलिये उसमें कवि का प्रचारवादी स्वर बहुत मन्द, लगभग अश्रव्य, है। पुण्यकुशल ने उपयुक्त स्थितियां चुन कर मानव-हृदय की भावनाओं की रसात्मक अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार की है कि उसका काव्य गहन रसानुभूति से ओतप्रोत हो गया है । संख्या की दृष्टि से तो इसमें अधिक रसों का पल्लवन नहीं हुआ है, किन्तु जिन रसों की निष्पत्ति काव्य में हुई है, उनमें इतनी तीव्रता तथा गम्भीरता है कि केवल इस दृष्टि से भी भ. बा. महाकाव्य का स्थान संस्कृत काव्यों में बहुत ऊँचा है। - युद्ध-प्रधान रचना होने के कारण इसमें वीर रस की प्रधानता मानी जाएगी। वीर रस की अभिव्यक्ति के लिये काव्य में स्थान भी कम नहीं है। पन्द्रहवें सर्ग में क्रमशः विपक्षी सेनाओं के युद्ध और भरतं एवं बाहुबलि के द्वन्द्वयुद्ध के वर्णन में वीर रस की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है । परन्तु भ. बा. महाकाव्य में श्रृंगार के उभय पक्षों का चित्रण इतनी तत्परता तथा विस्तार से किया गया है कि उसके सम्मुख वीररस मन्द-सा पड़ गया है। काव्य के मध्य भाग को पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है कि यह आमूलचूल शृंगार का काव्य है । सफेद सूती कपड़े के बीचों-बीच यह रंगीन रेशमी थिकली हास्यजनक है परन्तु उससे वस्त्र का आकर्षण बढ़ा है, इसमें सन्देह नहीं। पुण्यकुशल रस-योजना में भी माघकाव्य का ऋणी है। माघ के समान ही उसने शृगाररस को अनपेक्षित महत्त्व देकर, अपने इतिवृत्त में, वीर रस का विरोधी ध्रुव प्रस्तुत किया है। भ. बा. महाकाव्य का चौदहवां सर्ग सेनाओं के समरांगण में उतरने, योद्धाओं का परिचय तथा उत्साहवर्धन आदि पूर्वरंग की साजसज्जा का संकेत करता है। पन्द्रहवें सर्ग में सेनाओं के त्रिदिवसीय युद्ध के वर्णन में धनुषों की टंकार, तलवारों की टकराहट, कबन्धों के नृत्य, रक्त की नदियां प्रवाहित होना आदि उन वीररसात्मक रूढ़ियों का तत्परता से निर्वाह किया गया है, जो संस्कृत के चरितकाव्यों तथा हिन्दी के वीरगाथात्मक काव्यों का अनिवार्य अंग बन गयी थीं । चक्रवर्ती भरत तथा तक्षशिला-नरेश बाहुबलि की सेनाओं का यह प्रलयकारी युद्ध इसी रण-शैली को द्योतित
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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