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भरतबाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल है। दोनों में द्वन्द्वयुद्धों की संख्या, क्रम तथा वर्णन में आश्चर्यजनक साम्य है। हेमचन्द्र के अनुकरण पर पुण्यकुशल ने भरत-बाहुबलि के क्रमशः दृष्टियुद्ध, वाग्युद्ध; मुष्टियुद्ध तथा दण्डयुद्ध का वर्णन लगभग उन्हीं की शब्दावली में किया है । द्वन्द्वयुद्ध में पराजित होकर भरत के चक्रप्रहार करने का उल्लेख जिनसेन (३६.६५) और हेमचन्द्र (१.५.७१६) ने भी किया है, किन्तु उनके समान चक्र के बाहुबलि की प्रदक्षिणा करने का संकेत भ.बा. महाकाव्य में नहीं है यद्यपि उसके विवरण में भी वह बाहुवलि का स्पर्श किये बिना भरत के पास लौट आता है (१७.६५) । क्रुद्ध बाहुबलि के चक्र को चूर करने के लिए मुष्टि उठाकर दौड़ना किंतु उसी मुष्टि से केशोच्छेद कर साधुत्व स्वीकार करना, भरत का अनुज को प्रणिपात करना, आदर्शगृह में मुद्रिका गिरने से विषयों की आहार्यता तथा क्षणिकता का भान होने से भरत की कैवल्य-प्राप्ति आदि घटनाएँ त्रि.श.पु.चरित के विवरण की अनुगामिनी हैं (१.५.७३०-७९८)।
भ.बा. महाकाव्य के सप्तम तथा अष्टम सर्ग सैनिक युगलों के वनविहार, जलक्रीड़ा, सन्ध्या, सम्भोगक्रीड़ा, सूर्योदय आदि काव्यसुलभ विषयान्तरों से परिपूर्ण हैं । जैन पुराणों में इन समस्त विषयों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। त्रि.श.पु. चरित में वस्तुतः इनका नितांत अभाव है, किंतु आश्चर्य है, कट्टरतावादी दिगम्बर जिनसेन ने वनविहार तथा जलक्रीड़ा के अतिरिक्त रतिक्रीड़ा सहित उपर्युक्त सभी विषयों का तत्परता से वर्णन किया है (३५.१५२-२३६)। अंतर केवल यह है कि आदिपुराण में इनका सम्बन्ध बाहुबलि के योद्धाओं से है जबकि पुण्यकुशल ने इनका वर्णन भरत के सैनिकों के संदर्भ में किया है। परंतु पुण्यकुशल को इनकी प्रेरणा माघकाव्य (सर्ग, ७-११) से मिली प्रतीत होती है, जो कथानक के प्रस्तुतीकरण में उसका आदर्श है। कदाचित् यह अनुमान भी असंगत नहीं कि स्वयं जिनसेन इन वर्णनों के लिए माघ का ऋणी है। जैनपुराण में युद्धयात्रा के अन्तर्गत ऐसे स्वच्छन्द यौनाचरण की कल्पना सम्भव नहीं है । पुण्यकुशल को प्राप्त माघ का दाय
भ.बा. महाकाव्य के कथानक की समीक्षा करते समय तथा उसके आधारस्रोतों के विवेचन के प्रसंग में पुण्यकुशल के साहित्यिक ऋण का कुछ संकेत किया गया है । कथावस्तु के संयोजन, सर्गों के विभाजन तथा वर्ण्य विषयों के उपस्थापन में पुण्यकुशल माघ के पदचिह्नों पर चलते दिखाई देते हैं। शिशुपालवध की भांति भ.बा. महाकाव्य का प्रवर्तन उस मंगलाचरण से हुआ है, जिसे शास्त्रीय भाषा में वस्तुनिर्देशात्मक कहते हैं । शिशुपालवध श्रयंक काव्य है । पुण्यकुशल ने अपने काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में 'पुण्योदय' पद का प्रयोग करके एक ओर अपने नाम का