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________________ भरतबाहुबलिमहाकव्य : पुण्यकुशल १६१ उनके पद पर उनके पुत्रों को अभिषिक्त करने आदि का मनोरम वर्णन है (२.३७१५)। यह आदिपुराण (३५.६५-८५) तथा त्रि.श.पु.चरित (१.५.८७-११६) के प्रासंगिक अंशों का भिन्न शब्दावली में पुनराख्यान है। षट्खण्डविजय का अन्यत्र सविस्तार निरूपण होने के कारण उक्त ग्रन्थों में, प्रस्तुत प्रकरण में, इसकी आवृत्ति नहीं की गयी है, यद्यपि जिनसेन ने इसका सूक्ष्म संकेत किया है। भ० बा० महाकाव्य में षट्खण्डविजय का विवरण हेमचन्द्र के वर्णन का अनुगामी है। अपने आधारभूत ग्रन्थों के अनुकरण पर पुण्यकुशल ने भरत को, चक्रवर्तित्व के अतिरिक्त उसकी ज्येष्ठता के कारण, बाहुबलि द्वारा वन्दनीय माना है। अनुचित प्रस्ताव से क्रुद्ध होकर बाहुवलि के द्वारा उसे अस्वीकार करने का, तृतीय सर्ग में वर्णित, प्रसंग का आधार भी आदिपुराण तथा त्रि.श.पु.चरित में उपलब्ध है । आदिपुराण के लेखक ने राजनीति की पारिभाषिक शब्दावली में अपना पाण्डित्य बघारने का प्रयास किया है जबकि हेमचन्द्र ने तर्कबल से दूत का प्रत्याख्यान किया है। दोनों ग्रन्थों में भरत के तथाकथित निमन्त्रण को कपटपूर्ण षड्यन्त्र की संज्ञा दी गई है। जिनसेन की भाषा में वह 'खलाचार' है (३५.९४), हेमचन्द्र ने उसे उपहासपूर्वक 'बकचेष्टा' (१.५.१२८) कहा है । भ० बा० महाकाव्य में भरत की राज्यलिप्सा की तुलना वडवाग्नि से की गयी है, जो निनानवें अनुजों के राज्यों को लील कर भी तृप्त नहीं हुई है (३.१४) । दौत्य के विफल होने पर बाहुवलि के सैनिकों के युद्ध के लिये सोल्लास तैयार होने का वर्णन जिनसेन (३५.१४५-१५०) और हेमचन्द्र (१,५.१७५-१९४) के समान पुण्यकुशल ने भी किया है (३.४८ ___ शेष मूलकथा के निरूपण में पुण्यकुशल ने प्राय: सर्वत्र हेमचन्द्र का अनुसरण किया है । आदिपुराण में उन घटनाओं का अभाव है, जिनका प्रतिपादन भ० बा० महाकाव्य के तृतीय सर्ग के अन्तिम पद्यों में तथा समूचे चतुर्थ सर्ग में किया गया है। पुण्यकुशल के काव्य का उपर्युक्त अंश हेमचन्द्र के विवरण से प्रेरित तथा प्रभावित है। इस प्रसंग में पुण्यकुशल ने हेमचन्द्र के कतिपय भावों को यथावत् ग्रहण किया है । कहीं-कहीं शब्दसाम्य भी दिखाई देता है।" इस संदर्भ में, भ० बा० महाकाव्य में, दूत की आत्मग्लानि का संकेत नहीं किया गया हैं, जो वह अपने दौत्य की विफलता १२. आदिपुराण, ३४; त्रि.श.पु.चरित, १३३४. १३. तदुपेत्य प्रणामेन पूज्यतां प्रभुरक्षमी । आदिपुराण, ३५.८५. तेजसा वयसा ज्येष्ठो नृपः श्रेष्ठः स सर्वथा । त्रि.श.पु.चरित, १.५.१२. __ ज्येष्ठं किल भ्रातरमेहि नन्तुम् । भ.बा. महाकाव्य, २.६५. १४. त्रि.श.पु.चरित, १.५.२२१ तथा भ.बा. महाकाव्य, ३.२६,१०४.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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