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________________ हरसौभाग्य : देवविमलगणि १२७ इस प्रकार मूल काव्य का रचनाकाल विक्रम सम्वत् १६३९ से १६५६ (सन् १५८२ - १५६९) तक माना जा सकता है । रचना में पन्द्रह-सोलह वर्ष लगे थे । स्वोपज्ञ टीका सं० हीरसौभाग्य का पूर्वभव स्पष्ट है, हीरसौभाग्य की १६७१ में पूरी हुई थी ।' काव्य ने वर्तमान रूप देवविमल ने पहले हीर हीरसौभाग्य के मीमांसकों का विचार है कि प्रस्तुत प्राप्त करने के लिये कम से कम एक करवट अवश्य ली है । सुन्दर काव्य की रचना की थी, जिसके एक-दो सर्ग जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं । - श्री आत्मकमल लब्धिसूरीश्वर शास्त्र संग्रह, ईडर में इसके एक सर्ग की हस्तलिखित प्रति विद्यमान है । सम्भवतः यह काव्य पूरा नहीं हुआ था । कुछ समय पश्चात् कवि "ने उसका कायाकल्प कर नवीन काव्य की रचना की, जो अब हीरसोभाग्य नाम से -ख्यात है ।" कथानक हीरसौभाग्य सतरह सर्गों का बहुत बड़ा काव्य है । इसके अधिकतर सर्गों में शताधिक पद्य हैं। चौदहवें सर्ग में यह संख्या तीन सौ तक पहुँच गयी है । इसमें विविध छन्दों में रचित पूरे २७५६ पद्य हैं, जो काव्य की विशालता के द्योतक हैं । हीरसौभाग्य का आरम्भ जम्बूद्वीप, भारत वर्ष, गुर्जर देश तथा काव्य नायक के जन्म स्थान प्रह्लादनपुर के क्रमिक विस्तृत वर्णन से होता है, जो आद्यन्त कवि प्रतिमा से आर्द्र है । द्वितीय सर्ग में प्रह्लादनपुर के धनाढ्य वणिक् कुरां की रूपवती पत्नी नाथी के अनवद्य सौन्दर्य का नखशिख वर्णन तथा नवदम्पती की यौवन सुलभ केलियों का निरूपण है । 'श्रृंगारनट की गतिशील रंगशाला' ( २.१६) नाथी स्वप्न में गजदर्शन को जयन्त तथा भरत तुल्य पुत्र के जन्म का पूर्व सूचक जानकर हर्ष से पुलकित हो जाती है । सर्ग के शेष भाग में भरत की दिग्विजय, निशान्त तथा प्रभात का रोचक वर्णन है । तृतीय सर्ग में नाथी सम्वत् - १५८३ की मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी को एक शिशु को जन्म देती है । तीनों लोकों के मुकुट के रत्न के समान उसका नाम हीर रखा गया । माता-पिता के निधन के पश्चात् युवक हीर अपनी बहिन विमला के पास पाटण चला जाता है । चतुर्थ सर्ग में महावीर से लेकर विजयदान सूरि तक पूर्वाचार्यों की परम्परा का रोचक कवित्वपूर्ण वर्णन है। पंचम सर्ग में कुमार हीर, संसार, यौवन तथा लक्ष्मी की अनित्यता ६. वही, वर्ष १७, अंक ८-६, पृ० १६२ १०. दर्शनविजय : हीरसौभाग्य महाकाव्यनो पूर्वभव, जैन सत्यप्रकाश, वर्ष १५, अंक १, पृ० २३
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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