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जैन संस्कृत महाकाव्य
अप्रस्तुतप्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, दृष्टांत, पर्यायोक्त आदि वक्रोक्ति के पोषक अन्य अलंकार हैं, जिनका पद्मसुन्दर ने रुचिपूर्वक प्रयोग किया है । तृतीय सर्ग में अर्थान्तरन्यास को सबसे अधिक स्थान मिला है (३.११,८४,११७,१३६,१५३,१५५,१५६, २०१) । विषयों के बीच वसुदेव की निष्पापता के प्रतिपादक इस पद्य में पूर्वार्द्ध के विशेष कथन का उत्तरार्द्ध की सामान्य उक्ति से समर्थन करने के कारण अर्थान्तरन्यास है।
तां रिरंसुरथ सोऽप्यहनिथं पापमाप किमु तत्ववित् क्वचित् ।
ज्ञानिनां किल कलंकपंकता लिम्पते न विषयस्पृशामपि ॥ ११.३० अर्थान्तरन्यास और दृष्टान्त से ही वे मधुर सूक्तियां उद्भूत हैं, जो काव्य की निधि
काव्य में प्रयुक्त उपमाएँ कवि की कुशलता की परिचायक हैं । पद्मसुन्दर ने अन्य अलंकारों के संकर के रूप में भी उपमा का प्रयोग किया है (३।१६५,४।७ आदि) । पद्मसुन्दर के उपमान अनेक क्षेत्रों से लिये गये हैं। कुछ अप्रस्तुत शास्त्रीय (१०.६६) अथवा दार्शनिक (१०.२०) हैं। स्वयम्वर वर्णन में प्रयुक्त उपमान बहुत मार्मिक हैं । शिविकाधारी कनका को मिथिलापति से हटा कर 'धनदयुग्म' के पास ले गये जैसे सूर्य की किरणें चक्रवाकमिथुन के पास प्रसन्नता ले जाते हैं।
तां निन्यिरे धनदयुग्ममिवावशिष्टं प्रीति रथांगमिथुनं हरिवस्वपादाः । ६.१ रूपक, परिसंख्या, व्याजोक्ति, व्यतिरेक, विरोधाभास, सार, एकावली, कायलिंग, असंगति, अनुमान, उल्लेख, उदात्त, पद्मसुन्दर के अन्य मुख्य अलंकार हैं। नैषध के समान यदुसुन्दर में स्वभावोक्ति के लिये स्थान नहीं है। काव्य में इनी-गिनी स्वभावोक्तियां मिलेंगी। दूत के अन्तःपुर में प्रवेश की यह स्वभावोक्ति उसकी चेष्टाओं का यथातथ्य चित्र प्रस्तुत करती हैं।
दौवारिकस्य परविप्रतिषेधवाचा त्वं कोऽस्यरेऽपसर सोऽपि विशंकमानः ।
ग्रीवां विभुज्य चकितःक्षणमित्यपास्तशंकः परामथ विवेश निशान्तकक्षाम् ॥ ३.७६ २८. कुछ सूक्तियों बहुत रोचक हैं
(i) तृणाननीरः शममेति किं तृषा । १.३४ (ii) औचित्यं निकृतिपरेषु वक्तव । ३.६१ (ii) प्रायो हि नामपदमेव मुखं क्रियासु। ३.१०६ (iv) दुःस्थे चेतस्यशेषमविषह्यम् । ३.१२७ (v) न मानमान्धं गणयन्त्यभीप्सवः । ४.६ (vi) गरीयसितरा नियतेः समीहा । ४.७२ (vii) समयवशाः स्युः संपदोऽसंपदः । ६.६१