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जैन संस्कृत महाकाव्य
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उपजीव्य नैषध के समान यदुसुन्दर के बारहवें सर्ग का प्रकृति-वर्णन दूरारूढ़ कल्पनाओं और अप्रस्तुतों के दुर्वह बोझ से आक्रांत है । श्रीहर्ष के काव्य में पाण्डित्यपूर्ण उडान की कमी नहीं है पर प्रकृति-वर्णन के उन्नीसवें और बाईसवें सर्गों में वह सब सीमाओं को लांघ गया है। इन वर्णनों में उसने ऐसी विकट कल्पनाएँ की हैं जो वर्ण्य विषय को स्पष्ट करने की अपेक्षा उसे धूमिल कर देती हैं। स्थानाभाव के कारण यदुसुन्दर में उन सबको आरोपित करना सम्भव नहीं था, फिर भी पद्मसुन्दर ने श्री हर्षं के अप्रस्तुतों को उदारता से ग्रहण किया है । ये अप्रस्तुत नाना स्रोतों से लिये ये हैं । 'सन्ध्या के समय लालिमा धीरे-धीरे मिटती जाती है और तारे आकाश में छिटक जाते हैं; इस दृश्य के चित्रण में पद्मसुन्दर ने श्रीहर्ष के कई भावों की आवृत्ति की है । उसने पहले रूपक द्वारा इसका वर्णन किया है । सन्ध्या की सिंही ने दिन के हाथी को अपने नखों से फाड़ दिया है। उसकी विशाल काया से बहता रक्त, सान्ध्य राग के रूप में, आकाश में फैल गया है और उसके विदीर्ण मस्तक से भरते मोती तारे बन कर छिटक गये हैं ( १२.६) । श्रीहर्ष ने आकाश को मूर्ख के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसने सूर्य का स्वर्ण पिण्ड बेच कर बदले में, कौडियां खरीद ली हैं । पद्मसुन्दर ने इसके विपरीत अस्ताचल को व्यवहारकुशल क्रेता का रूप दिया है । उसने सन्ध्या की आग में शुद्ध सूर्य रूपी स्वर्ण पिण्ड हथिया लिया है और उसके बदले में आकाश को निरर्थक कौडियां (तारे) बेच दी हैं । " सूर्य के अस्त होने पर चारों ओर अंधेरा घिरने लगा है । कवि की कल्पना है कि काजल बनाने के लिये सूर्य रूपी दीपक पर आकाश का सिकोरा औंधा रखा गया था। काजल इतना भारी हो गया है कि वह विशाल सिकोरा भी उसके भार से दब कर नीचे गिर गया है । उसने दीपक (सूर्य) को बुझा दिया है । वह स्वयं अंधकार बन कर चारों तरफ बिखर गया है । " चन्द्रमा की उदयकालीन लालिमा ऐसी लगती है मानो वह अग्रज ऐरावत द्वारा उसे अपने सिन्दूर से लाल मस्तक पर उठाने से लग गयी हो अथवा देवांगनाओं ने उसे अपने अधरों के चुम्बनों से लाल बना दिया हो ( १२.३३) । प्रभातवर्णन में और भी दूर की कौड़ी फेंकी गयी है । प्रातः काल तारे अस्त हो जाते
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२६. अस्ताचलेऽस्मिन्निकषोपलामे सन्ध्याकषोल्लेखपरीक्षितो यः ।
विक्रीय तं लिहिरण्यपिण्डं तारावराटानियमादित द्यौः ॥ नैषध २२.१३ निकषमिषतां बिभ्रत्यस्ताचलस्तु शिलातले द्र तकनकजं पिण्डं क्रीत्वा विकर्तनमण्डलम् ।
जलनिधिर दत्ते साक्षात्परीक्ष्य पितृप्रसूहुतभुजि नभोहस्ते तारावराटकोटिताम् ॥
यदु. १२.८.
२७. यदुसुन्दर, १२.१५, नैषधचरित, २२.३२.