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यदुसुन्दरमहाकाव्य : पद्मसुन्दर
होगा ।
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यदुसुन्दर के प्रथम सर्ग में यदुवंश की राजधानी, मथुरा, का वर्णन नैषधचरित के द्वितीय सर्ग में विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर के वर्णन से प्रेरित है । श्रीहर्ष ने नगर वर्णन के द्वारा काव्यशास्त्रीय नियमों को उदाहृत किया है, मथुरा के सामान्य वर्णन में उसकी स्वर्ग से श्रेष्ठता प्रमाणित करने की प्रवृत्ति लक्षित होती है । अग्रज समुद्रविजय की भर्त्सना के फलस्वरूप वसुदेव का मथुरा छोड़कर विद्याधरनगरी में शरण लेना ( १४५ - ७०) नैषध के प्रथम सर्ग में नल के उपवन - विहार (१.७६ - ११६ ) का समानान्तर माना जा सकता है, यद्यपि दोनों के उद्देश्य तथा कारण भिन्न हैं । द्वितीय सर्ग में नैषधचरित के दो सर्गों (३,७ ) को रूपान्तरित किया गया है । कनका का सौन्दर्य चित्रण स्पष्टतः दमयन्ती के नख - शिख वर्णन ( सप्तम सर्ग) पर आधारित तथा उससे अत्यधिक प्रभावित है । श्रीहर्ष की भांति पद्मसुन्दर ने भी राजकुमारी के विभिन्न अंगों का एकाधिक पद्यों में वर्णन करने की पद्धति ग्रहण की है परन्तु उसका वर्णन संक्षिप्त तथा क्रमभंग से दूषित है हालाँकि यह नैषध की शब्दावली से भरपूर है । सर्ग के उत्तरार्द्ध में हंस का दौत्य नैषध के तृतीय सर्ग के समानान्तर प्रसंग का अनुगामी है । दोनों काव्यों में हंस को, नायिका को नायक के प्रति अनुरक्त करने की महत्त्वपूर्ण भूमिका सौंपी गयी है जिसके फलस्वरूप वह अपने प्रेमी के सान्निध्य के लिये अधीर हो जाती है। दोनों काव्यों में हंसों के तर्क समान हैं तथा वे अन्ततः नायकों को दौत्य की सफलता से अवगत करते हैं । तृतीय सर्ग में पद्मसुन्दर ने नैषधचरित के पूरे पांच विशालकाय सर्गों को संक्षिप्त करने का घनघोर परिश्रम किया है । कनका के पूर्व राग के चित्रण पर दमयन्ती के विप्रलम्भ-वर्णन (चतुर्थ सर्ग ) का इतना गहरा प्रभाव है कि इसमें श्रीहर्ष के भावों की लगभग उसी की शब्दावली में, आवृत्ति करके सन्तोष कर लिया गया है । श्रीहर्ष ने काव्याचार्यों द्वारा निर्धारित विभिन्न शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक विरह-दशाओं का वर्णन किया है । पद्मसुन्दर का वर्णन इस प्रवृत्ति से मुक्त है तथा वह केवल ४७ पद्यों तक सीमित है । श्रीहर्ष के इस मोटिफ का परवर्ती साहित्य पर दूरगामी प्रभाव पड़ा है । यदुसुन्दर में नारद आदि दिव्य व्यक्तित्व के लिये स्थान नहीं है । यहां कुबेर स्वयं आकर वसुदेव को दौत्य के लिये भेजता है । दूतकर्म स्वीकार करने से पूर्व वसुदेव को वही आशंकाएं मथित करती हैं ( ३.५७ - ७० ) जिनसे नल पीडित है ( नैषध० ५.६६ - १३७ ) । दूत का महल में, अदृश्य रूप में प्रवेश तथा वहां उसका आचरण दोनों काव्यों में समान रूप से वर्णित है" । श्रीहर्ष ने छठे सर्ग का अधिकतर भाग दमयन्ती के सभागृह, दूती की उक्तियों तथा दमयन्ती के समर्थ प्रत्युत्तर
१७. यदुसुन्दर, ३.७२-११४; नैषधचरित, ६.८-४४ ।