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मैमिनाथमहाकाव्य : कीतिराज उपाध्याय
है, जो भारवि से आरम्भ होकर उत्तरवर्ती कवियों द्वारा सोत्साह ग्रहण की गयी हैं। शैली में अधिकतर कालिदास के पदचिह्नों पर चलते हुए भी कीतिराज ने, अन्तिम सर्ग में, चित्रकाव्य के द्वारा चमत्कार उत्पन्न करने तथा अपने पाण्डित्य की प्रतिष्ठा करने का साग्रह प्रयत्न किया हैं। सौभाग्यवश ऐसे पदों की संख्या अधिक नहीं है। सम्भवतः, वे इनके द्वारा सूचित कर देना चाहते हैं कि मैं समवर्ती काव्यशैली से अनभिज्ञ अथवा चित्रकाव्य-रचना में असमर्थ नहीं हूं किन्तु सुरुचि के कारण वह मुझे ग्राह्य नहीं है । आश्चर्य यह है कि नेमिनाथ महाकाव्य में इस शाब्दिक क्रीड़ा की योजना केवलज्ञानी नेमिप्रभु की वन्दना के अन्तर्गत की गयी है। इस साहित्यिक जादूगरी में अपनी निपुणता का प्रदर्शन करने के लिए कवि ने भाषा का निर्मम उत्पीड़न किया है, जिससे इस प्रसंग में वह दुरूहता से आक्रान्त हो गयी है।
कीतिराज का चित्रकाव्य बहुधा पादयमक की नींव पर आधारित है, जिसमें समूचे चरण की आवृत्ति की है ; यद्यपि उसके अन्य रूपों का समावेश करने के प्रलोभन का भी वह संवरण नहीं कर सका। प्रस्तुत जिनस्तुति का आधार पादयमक है।
पुण्य ! कोपचयदं न तावकं पुण्यकोपचयदं न तावकम् । दर्शनं जिनप ! यावदीक्ष्यते तावदेव गददुःस्थताविक्रम् ॥ १२.३३
निमोक्त पद्य में एकाक्षरानुप्रास है। इसकी रचना केवल एक व्यंजन 'त' पर आश्रित है, यद्यपि इसमें तीन स्वर भी प्रयुक्त हुए हैं।
अतीतान्तत एतां ते तन्तन्तु ततताततिम् । ऋततां तां तु तोतोत्तू तातोऽततां ततोन्ततुत् ॥ ११.३७
प्रस्तुत पद्य की रचना अर्ध प्रतिलोमविधि से हई है। अतः इसके पूर्वार्ध तथा उत्तरार्ध को, आरम्भ तथा अन्त से एक समान पढ़ा जा सकता है।
तुद मे ततवम्मत्वं त्वं भदन्ततमेद तु। रक्ष तात ! विशामोश ! शमीशावितताक्षर ॥ १२.३८
इन दो पद्यों की पदावली में पूर्ण साम्य है, किन्तु पद योजना तथा विग्रह के वैभिन्न्य के आधार पर इनसे दो स्वतन्त्र अर्थ निकलते हैं। साहित्यशास्त्र की शब्दावली में इसे महायमक कहा जायेगा।
महामदं भवारागहरि विग्रहहारिणम् । प्रमोदजाततारेनं श्रेयस्करं महाप्तकम् ॥ महाम दम्भवारागहरि विग्रहहारिणम् । प्रमोदजाततारेनं श्रेयस्करं महाप्तकम् ।। १२.४१-४२ इस कोटि के पद्य कवि के पाण्डित्य, रचना-कौशल तथा भाषाधिकार को