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बंकचूलचरियं
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४९. वहां जाकर जिनदास को यह पत्र देकर कहना कि राजा ने तुम्हें बुलाया है। बंकचूल बहुत बीमार है ।
५० -५१. दूत ने शीघ्र वहां जाकर जिनदास को पत्र देकर सब बात कह दी । दूत के मुख से मित्र की अतिरुग्णता की बात सुनकर वह मन में व्याकुल होकर शीघ्र उसके साथ वहां आया । मित्र की इस स्थिति को देखकर उसके हृदय में बहुत दुःख हुआ ।
५२. राजा ने उससे (जिनदास से) कहा- सभी औषधियां निष्फल हो गई । सिर्फ एक ही अवशिष्ट है। उसका यह प्रयोग नहीं करता ।
५३. यह कहता है कि मै ग्रहण किए हुए नियम को नहीं तोडूंगा। लेकिन जीवित व्यक्ति ही व्रतों का पालन कर सकता है ।
५४. यदि जीवन नष्ट हो जायेगा तो कौन पुनः जीवित कर सकता है ? अतः मेरा तो यही कहना है कि पहले जीवन की रक्षा करनी चाहिए ।
५५. राजा की वाणी सुनकर बंकचूल ने जिनदास को कहा - मित्र ! यह जीवन नाशवान् है । कभी नष्ट हो सकता है ।
५६. अत: इस जीवन के लिए मैं गृहीत नियम को नहीं तोडूंगा । जो व्यक्ति लिए हुए व्रत को तोड़ता है वह सदा निम्न गति में जाता 1
५७. उसकी यह दृढ़ता देखकर जिनदास ने राजा से कहा- राजन् ! अन्य औषधियां छोड़कर इसे धर्म की सहायता दें।
५८. जब मनुष्य इस शरीर को छोड़कर परलोक मे जाता है तब सिर्फ धर्म मनुष्य का साथी होता है, अन्य कोई नहीं ।
५९, ६०, ६१. उसका यह कथन सुनकर बंकचूल ने जिनदास को कहामित्र ! यदि तुम्हारा मेरे प्रति थोड़ा भी स्नेह है तो मुझे धर्म का संबल दो। मैं अन्य कुछ नहीं चाहता । उसकी यह वाणी सुनकर जागरूक जिनदास ने उसके सम्मुख प्रचुर सुखद धार्मिक वातावरण बना दिया। उसको पाकर बंकचूल बहुत प्रसन्न हुआ।