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प्रस्तुत उपन्यास उन जीवन्त घटनाओं का साक्षी है। यह उपन्यास सर्वप्रथम सन् १६८६ में प्रकाशित हुआ था। लगभग इक्कीस वर्षों की प्रलम्ब अवधि के पश्चात् यह पुन: लोगों के हाथों में पहुंच रहा है। इस समयावधि में मैंने देखा-लोगों की उपन्यासों के प्रति बढ़ती हुई रुचि, उत्सुकता और उनसे बोध पाठ लेने की उमंग को। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह उपन्यास भी उनकी भावना को परिपूर्ण करता हुआ उपन्यासप्रेमियों को तृप्ति और सन्तोष देगा।
जैन विश्वभारती ने इन उपन्यासों का पुन: मुद्रण कराकर अपने दायित्व का निर्वहन किया है। यह उसकी कार्यनिष्ठा की फलश्रुति है।
इस समस्त कार्य की निष्पत्ति में मेरे दाएं-बाएं रहने वाले दो मुनियों का अत्यधिक परिश्रम लगा। वे मुनिद्वय हैं-मुनि राजेन्द्रकुमारजी और मुनि जितेन्द्रकुमारजी। मेरी मंगल कामना है कि दोनों मुनियों की उत्तरोत्तर कार्यनिष्ठा, परिश्रमशीलता, लगनशीलता वृद्धिंगत होती रहे।
आचार्य तुलसी मेरे दीक्षा गुरु थे। उन्होंने मुझे सर्वतोमुखी विकास करने का अवसर दिया। उनके इस उपकार को मैं कैसे विस्मृत कर सकता हूं।
आचार्य महाप्रज्ञ के पास मैं छह दशक से अधिक समय तक उनका बनकर रहा। दीक्षा लेते ही मेरा एक मानसिक संकल्प था कि मैं उनके पास रहूं। मेरी भावना साकार हुई और मैं उनके पास आ गया। उन्होंने मेरे लिए वह सब कुछ किया, जो एक गुरु अपने शिष्य के लिए करता है। वे मेरे जीवन का निर्माण करने वाले, संरक्षक, प्रतिबोधक और अल्पज्ञ से आगमज्ञ बनाने वाले थे। उनके महान् उपकार से उऋण होना मेरे लिए सर्वथा अशक्य है। वे अकस्मात् हमें छोड़कर चले गए। नियति को यही मान्य था। नियति के आगे हम सब बौने और विवश हैं। काश! प्रस्तुत उपन्यास का लोकार्पण उनके सामने होता।
__अन्त में मैं आचार्य महाश्रमण के प्रति अपनी आस्था के सुमनों को समर्पित करता हुआ बद्धांजलि प्रणत हूं।
उपन्यासरसिक सुधीजन प्रस्तुत उपन्यास को पढ़कर अपनी दिशा और दशा को बदल सकेंगे, इस मंगल और कल्याणमयी भावना के साथ....
आगममनीषी मुनि दुलहराज
सरदारशहर (चूरू) २० जुलाई, २०१०