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दूसरे दिन सूर्योदय के पश्चात् पुष्पसेना ने उत्तम वस्त्रालंकार धारण किए और राजभवन जाने के लिए तैयार हो गई ।
दोनों एक बन्द रथ में बैठकर राजभवन की ओर विदा हुए।
उस समय वीर विक्रम अपनी चारों रानियों के साथ कलेवा कर रहे थे । मनमोहिनी पुष्पसेना के साथ उसी कक्ष में गई । वीर विक्रम और चारों रानियां अवाक् रह गईं।
मनमोहिनी ने प्रणाम करते हुए कहा- 'पिताजी! हम दोनों आपके चरणों में प्रणाम करते हैं ।'
वीर विक्रम ने पुष्पसेना की ओर देखा। दोनों महाराजा के चरणों में झुक गईं । वीर विक्रम बोले – ‘इस सुन्दरी को मैंने कहीं देखा है।'
'हां, यह प्रख्यात गणिकापुत्री पुष्पसेना है। चोपड़ के खेल में यह हार गई । आप इसके साथ बात करें, मुझे अभी प्रात:कार्य से निवृत्त होना है' कहकर मनमोहिनी चली गई ।
मनमोहिनी स्नान आदि से निवृत्त होकर अपने मूल वेश में उस कक्ष में आयी, उससे पूर्व ही वीर विक्रम ने पुष्पसेना के समक्ष सारा रहस्योद्घाटन कर दिया था। पुष्पसेना असमंजस में पड़ गई।
वीर विक्रम बोले- 'बेटी ! तुम दोनों में से कौन हारा है और कौन जीता है, इस बात को भूल जाओ ।'
वीर विक्रम और चारों रानियां खंड से बाहर चली गईं।
मनमोहिनी ने पुष्पसेना से कहा - 'पुष्पा ! तुम्हारे मन में रोष तो नहीं है ?' 'आप बड़े चालाक निकले....'
'पुष्पा! अब तुम सारी चिन्ता छोड़ो। जो मेरे पति, वे ही तुम्हारे पति.....' 'युवराज्ञी!'
'हां, मैं सच कहती हूं ।'
'नहीं, नहीं। यह कभी नहीं हो सकता ।'
'तब तो तुम्हें जीवनभर मेरे साथ सखी रूप में रहना होगा और युवराज यदि तुम्हें योग्य लगें तो.... ।'
पुष्पसेना ने मनमोहिनी की गोद में मस्तक छिपा लिया।
७८. अनन्त गगन
दूसरे ही दिन आचार्यश्री सिद्धसेन दिवाकर अवंती में आए। समग्र राज-परिवार उनके दर्शनार्थ गया। पुष्पसेना भी साथ में गई।
४३६ वीर विक्रमादित्य