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________________ पुष्पसेना मनमोहिनी की बातचीत से आकर्षित हो चुकी थी। दोनों ने चोपड़ खेलने का समय निश्चित कर डाला। चोपड़ का खेल प्रारंभ हुआ। मात्र दो घटिका में पहला खेल समाप्त हो गया। पुष्पसेना हार गई। मनमोहिनीबोली-'देवी! आप निराशन हों। आपने कामशास्त्र का अभ्यास किया है या नहीं?' 'अभ्यास है, अनुभव नहीं।' 'आश्चर्य!' 'सेठजी ! मैं अभी कुमारिका हूं।' 'समझा। किन्तु मैं दूसरी ही बात कर रहा था। कामशास्त्र कहता है कि नारी कभी नहीं हारती। और यदि हारती है तो भी उसमें उसकी विजय छिपी रहती है।' _ 'यह मैं जानती हूं।' कहकर पुष्पसेना ने प्रेमभरी दृष्टि से नौजवान की ओर देखा और उसके अन्त:करण में यह निश्चय हो गया कि उसकी कल्पना आज साकार होगी। दूसरा खेल प्रारंभ हुआ। पुष्पसेना हार गई। वह मनमोहिनी की ओर देखकर बोली-'आप विजेता हुए हैं। मेरी सम्पत्ति के स्वामी बने हैं। मैंने हारकर भी आपको जीत लिया है।' कहकर पुष्पसेना चरणों में झुक गई। मनमोहिनी ने कहा- 'देवी! पहला काम यह करो कि जितने व्यक्तियों को तुमने बंदी बना रखा है, उन्हें ससम्मान छोड़ दो।' वैसा ही हुआ। मनमोहिनी ने पुष्पसेना का कोमल हाथ पकड़कर कहा-'प्रिये ! जीवन एक खेल है, एक स्वप्न है। कहां तेरे जैसी सुनयना, सुडौल और चतुर नारी और कहां मेरे जैसा अर्धपागल वणिक् !' 'स्वामी!' 'नहीं, सेना! तुम किसी सशक्त पुरुष की अर्धांगिनी बनने के योग्य हो, किन्तु जुए ने तुम्हें मेरे जैसे व्यक्ति के चरणों में ला पटका है।' पुष्पसेना मौन रही। मनमोहिनी बोली-'प्रिये ! अब हमें यहां से राजभवन जाना है।' 'राजभवन?' 'हां, महाराजा मेरे पिताजी के मित्र हैं। भय का कोई कारण नहीं है।' वीर विक्रमादित्य ४३५
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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