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________________ बीच में ही मनमोहिनी बोल पड़ी-'अरे! शपथ न ले, अन्यथा आपको प्रायश्चित्त करना होगा। देखें, आपने मुझे यह रत्नहार दिया या नहीं?' कहती हुई मनमोहिनी ने अपने चूंघट को ऊंचा कर दिया। युवराज तत्काल बोल उठे- 'मालिनी....' 'यह मेरा गुप्त नाम था। मेरा यथार्थ नाम है मनमोहिनी। स्त्रीचरित्र की बेजोड़ता सिद्ध करने के लिए ही मुझे यह सब करना पड़ा।' । युवराज लज्जा का अनुभव करने लगे। सुरभद्र को भी यथार्थता के दर्शन हो गए। सारा वातावरण बदल गया। मनमोहिनी ने वीर विक्रम को सारी घटना बताई। वीर विक्रम मनमोहिनी की बुद्धि पर आश्चर्यचकित रह गए। सारे देश में पौत्र-प्राप्ति का उत्सव मनाया गया। जब युवराज शयनागार में गए तब रात्रि का दूसरा प्रहर पूरा हो रहा था। शयनागार में चरण रखते ही वह चौंका । मनमोहिनी सज-धजकर पति की प्रतीक्षा में बैठी थी। शिशु पालने में सो रहा था। दोनों एक आसन पर बैठे और पूर्व घटित घटनाओं को सुनते-सुनाते रहे। कुछ समय पश्चात् युवराज ने पत्नी को अपनी ओर खींचना चाहा। उस समय पालने में सोया हुआ शिशु रो पड़ा। ___ मनमोहिनी अचानक खड़ी हुई और युवराज बोला- 'उस दिन आपने योगिनी के वेश की मर्यादा का पालन किया था। अब आपको एक माता की मर्यादा की सुरक्षा करनी है।' वह पालने के पास चली गई। युवराज प्रसन्न दृष्टि से प्रियतमा की ओर देखने लगे। उसी क्षण मां ने शिशु को पिता की गोद में लाकर रख दिया। ७६. चार रत्न अवंती नगरी में श्रीधर नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके छह कन्याएं और एक लड़का था। वह अत्यन्त दरिद्र था। मालवनाथ की राजधानी में ऐसा दरिद्र ! किन्तु श्रीधर के कर्म का दोष अति प्रबल था। वीर विक्रम ने इस गरीब ब्राह्मण को अनेक बार दान में स्वर्ण आदि दिया था, किन्तु श्रीधर के पास वह टिकता नहीं था। कभी वह दूसरों को दे देता और कभी वह खो जाता। कर्म का प्रभाव विचित्र होता है। वीर विक्रमादित्य ४२७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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