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युवराज शान्त बैठ गए। उनका मुंह क्रोध से तमतमा उठा। वीर विक्रम बोले- 'पुत्र! आवेश को शांत करो। कुछ याद करो...'
'किन्तु मैं कैसे स्मृति करूं? इस स्त्री का मुंह भी मैंने आज तक नहीं देखा।' अकुलाहटभरे स्वरों में युवराज बोले।। ___ और सबकी दृष्टि मनमोहिनी की ओर स्थिर हो गई।
मनमोहिनी ने अपनी माता की ओर हाथ लंबा कर कहा-'मां! मेरी वस्तुएं लायी हो?'
'हां।' कहकर मां ने छोटी पेटी बेटी के पास रख दी।
मनमोहिनी ने उस पेटी से एक मुद्रिका निकाल महाराज के समक्ष रखते हुए कहा- 'मैं आपके पुत्र की पत्नी हूं, इस बात की साक्षी तो आप स्वयं हैं और यह मुद्रिका है।'
'यह सच है।' विक्रम ने कहा।
मनमोहिनी ने फिर पेटी से रत्नहार बाहर निकालकर विक्रम को देते हुए कहा-'पिताजी! युवराज जब पहली बार मुझसे मिले थे तब यह हार मुझे दिया था। आप इनसे पूछे।'
विक्रम ने युवराज से कहा- 'क्या तुम इस हार को पहचानते हो?'
देवकुमार ने हार अपने हाथ में लिया और उसे दो क्षण निहारकर कहा'पिताजी! रत्नहार तो मेरा ही है, किन्तु मैंने यह हार मनमोहिनी को कभी नहीं
दिया।'
तत्काल मनमोहिनी बोली- 'क्या आपने यह हार अपनी पत्नी को नहीं दिया था?'
युवराज विचारमग्न हो गए।
मनमोहिनी बोली-'स्वामी! याद करें । एक दिन आप भोजन करने के लिए श्वसुरगृह में पधारे थे। श्वसुरगृह के निकट एक मकान में एक नवयौवना योगिनी आयी थी.....'
युवराज तत्काल बोल उठे-'इस बात को याद करने से तुम्हें क्या प्रयोजन है ? यह हार तुम्हारे पास कैसे आया?'
'मैं वही योगिनी हूं। आप योगिनी के रूपजाल में फंस गए। दूसरे ही दिन आप योगिनी के साथ चन्द्र उपवन में परिभ्रमण करने गए। वहां योगिनी ने अपना भगवा वेश उतार डाला। उसका नाम मालिनी था। कुछ स्मृति हई?'
'ओह! किन्तु मैंने तुम्हें यह हार कदापि नहीं दिया। मैं अपनी तलवार की शपथ...' ४२६ वीर विक्रमादित्य