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महाराजा विक्रम ने इस घोषणा पर सहमति दी ।
समग्र सभा ने विक्रमचरित्र का जयनाद किया ।
और जनता के मुंह पर देवकुमार का नाम विक्रमचरित्र क्रीड़ा करने लगा । दिन बीते । महीने बीते और देखते-देखते चार वर्ष बीत गए।
देवकुमार विक्रमचरित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए और जब वे बीस वर्ष के हुए तब राजकार्य में अत्यन्त निपुण हो गए।
एक दिन अपने नियम के अनुसार वीर विक्रम रात्रि में नगरचर्चा के लिए निकल पड़े।
अवंती नगरी में सुदंत नाम का करोड़पति सेठ रहता था । वीर विक्रम नगरचर्चा सुनते-सुनते सेठ के भवन के पास आए। उस समय सुदंत सेठ के उपवन में उसकी एकाकी पुत्री मनमोहिनी अपनी सखियों के साथ विनोदभरी चर्चा कर रही थी । सुन्दर षोडशी कन्या बातों में मशगूल हो रही थी ।
बातों ही बातों में एक सखी बोली- 'मनमोहिनी ! अपने महाराज ने नगरी में जो घोषणा कराई है, क्या तुमने उसे सुना है ?'
'कैसी घोषणा ?'
'स्त्रीचरित्र से भी विक्रमचरित्र श्रेष्ठ है, इस विषय की घोषणा ।'
'हमारे महाराजा अधिक संवेदनशील हैं। देवकुमार ने केवल एक चपलसेना को ही तो पराजित किया है, उसमें विक्रमचरित्र की क्या महत्ता है ? संसार में स्त्रीचरित्र का पार भगवान भी नहीं पा सकते। महाराजा तो संवेदनशील और उदार हैं, इसलिए उन्होंने मन की बात इस प्रकार प्रचारित की है। ऐसे तो स्त्रीचरित्र बेजोड़ और अजेय था, है और रहेगा ।'
'अरे, यह तुम क्या कह रही हो, मनमोहिनी ?'
'मैं सच कहती हूं । स्त्री केवल रूपवती ही नहीं होती, वह अपने बुद्धिबल और कटाक्ष से बड़ों-बड़ों के छक्के छुड़ा देती है। मैं तो विक्रम की घोषणा को केवल मूर्खता ही मानती हूं।'
एक ओर छिपकर खड़े विक्रम ने यह सारी बात सुनी। उनका कलेजा कांप उठा – अरे, एक षोडशी वणिक् कन्या मेरी बात को मूर्खतापूर्ण बताती है ? वीर विक्रम मन पर लगे इस आकस्मिक प्रहार को सहलाते हुए आगे बढ़ गए ।
मनमोहिनी अपनी सखियों के साथ स्वाभाविक रूप से बातें कर रही थीं। परन्तु विक्रमादित्य को यह बात चुभ गई। उनके मन में यह जिज्ञासा जाग उठी कि उनका मानना मूर्खतापूर्ण क्यों है ?
वीर विक्रमादित्य ३६५