SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजा वीर विक्रम तत्काल सिंहासन से नीचे उतरे और देवकुमार को छाती से लगाते हुए गद्गद हो गए। उनके अन्त:करण में पुत्र-प्रेम का सागर हिलोरें लेने लगा। सभी सभासद् जयनाद और हर्षनाद करने लगे। वीर विक्रम ने पुत्र देवकुमार का मस्तक बार-बार चूमा। विक्रम के इतनी पत्नियां थीं, पर किसी के अब तक पुत्र प्राप्त नहीं हुआ था। ____ महामंत्री ने खड़े होकर देवकुमार को आशीर्वाद दिया। महाबलाधिकृत भी हर्षावेश में आ गए। सारा वातावरण बदल गया। थोड़े समय पश्चात् सर्वहररूपी देवकुमार ने कहा- 'मेरे पिताश्री प्रमाण देखना नहीं चाहते, पर मेरा कर्त्तव्य है कि मैं प्रमाण प्रस्तुत करूं; अन्यथा किसी के मन में यह शंका हो सकती है कि एक चोर वीर विक्रम का पुत्र कैसे हो सकता है?' यह कहकर देवकुमार ने कौशेय वस्त्र में लिपटी हुई पेटिका वीर विक्रम के हाथ में सौंप दी। फिर देवकुमार के पास में खड़ी पट्टरानी कमलावती के चरणों में नमस्कार किया। देवी कमलावती ने देवकुमार को उठाकर उसका मस्तक बार-बार चूमा। महाराजा विक्रमादित्य ने पेटिका खोली और उसमें रखी हुई राजमुद्रिका, अपने हस्ताक्षर वाला परिचय-पत्र और कमलावती द्वारा प्रेषित रत्नहार बाहर निकाला। सारी जनता उल्लासमयी हो गई। सारी शंकाएं निर्मूल हो गईं। वीर विक्रम ने देवकुमार को संबोधित कर कहा- 'देव! तुम्हारी मां कहां है?' 'पिताश्री! माताजी विक्रमगढ़ में हैं।' वीर विक्रम ने तत्काल महामंत्री की ओर देखकर कहा-'महामंत्री! अवंती नगरी में आठ दिनों तक उत्सव मनाने की घोषणा करा दो और दान देने की भी सुचारू व्यवस्था कर दो। महादेवी सुकुमारी के स्वागत की तैयारी करो....मैं राजपरिवार के साथ विक्रमगढ़ जा रहा हूं। मध्याह्न के पश्चात् हम लौट आएंगे। उस समय आप सब अपनी राजलक्ष्मी के स्वागत के लिए तैयार रहें।' राजसभा की कार्यवाही सम्पन्न हुई। कुछ ही समय में यह सुखद समाचार सारी नगरी में फैल गया। आनन्द, उल्लास और उमंग की लहरें दौड़ पड़ीं। एक घटिका पश्चात् वीर विक्रम राजभवन से विक्रमगढ़ की ओर विदा हुए। महाराज विक्रम, सर्वहर, कमलारानी और कलावती एक रथ में बैठे। दूसरे रथ में अन्य रानियां और वृद्ध महिलाएं थीं। वीर विक्रमादित्य ३६१
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy