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________________ 'नहीं, सर्वहर! तू सारी बात जनता के समक्ष प्रकट कर । मेरा जीवन खुली पोथी जैसा है। मैं यदि अपने अन्याय की बात एकान्त में सुनूं तो यह जनता का अपमान होगा। तू नि:संकोच भाव से सारी बात बता।' दो क्षण मौन रहकर सर्वहर बोला-'कृपावतार! यदि केवल प्रमाण प्रस्तुत करूं तो....?' 'नहीं, तुझे सारी बात बतानी होगी।' 'तो आप सुनें-दक्षिण भारत में एक समृद्ध और सुन्दर राज्य है। उसकी राजधानी का नाम है प्रतिष्ठानपुर । उस राज्य के राजा हैं शालिवाहन । वे अत्यन्त धर्मिष्ठ और प्रजावत्सल हैं। उनके एक पुत्री थी। उसका नाम था सुकुमारी। वह पुरुषों के प्रति द्वेष रखती थी.....' सुकुमारी का नाम सुनते ही वीर विक्रम चौंके । कमलावती और भट्टमात्र भी आश्चर्यचकित हो गए। देवकुमार बोला- 'एक बार विजयसिंह नाम का एक संगीतज्ञ वहां आया। उसने एक विचित्र प्रकार के स्वयंवर में भाग लेकर राजकन्या पर विजय प्राप्त की। सुकुमारी का विवाह उस संगीतज्ञ के साथ हो गया। राजकन्या का पुरुष-द्वेष समाप्त हो गया और उसके मन में पति के प्रति अनुराग उभर आया। कुछ समय तक दोनों साथ रहे। सुकुमारी गर्भवती हुई और संगीतज्ञ विजयसिंह किसी संगीत परिषद् में सम्मिलित होने के लिए चला गया। उस वृत्तान्त को आज सत्रह वर्ष हो गए हैं। विजयसिंह लौटकर नहीं आया। महाराजा शालिवाहन ने चारों ओर खोज कराई, पर उसका अता-पता नहीं मिला। देवी सुकुमारी के दु:ख का पार नहीं रहा। वे स्वामी के चले जाने के पश्चात् तत्काल राजभवन में रहने चली गईं। भाग्यवश उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई।' 'पुत्ररत्न.....?' विक्रम ने आश्चर्य के साथ कहा। 'हां, कृपावतार! देवी सुकुमारी अपने पुत्र का पालन-पोषण करने लगी। किन्तु उनके हृदय में पति की चिन्ता सदा एक चिता की भांति धधकती रहती थी। उनका पुत्र जब सोलह वर्ष का हुआ, तब नगरी के बाहर वाले भवन में एक पेटी को सुरक्षित रखे रहने की बात सुकुमारी को याद आयी....' 'ओह सर्वहर ! मेरे हाथों एक सती-साध्वी नारी के प्रति भयानक अन्याय हो गया। वह देवी अब कहां है ? उसका पुत्र कहां है? मुझे प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है। विस्मृति की चट्टान कितनी कठोर होती है?' 'कृपानाथ! आपकी वह सती-साध्वी पत्नी यहीं आई हुई है और मैं हूं आपका मंदभाग्य पुत्र देवकुमार।' कहकर सर्वहर ने मस्तक नमाया। ३६० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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