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आयी। वह बोली-'ओह! विरह और वियोग की व्यथा के कारण मैं एक महत्त्वपूर्ण बात भूल ही गई।
'कौन-सी बात, मां?' __ 'जाते समय तेरे पिताश्री ने मुझे एक पेटी संभलाई थी। मुझे पता नहीं उसमें क्या है ? पेटी के विषय में उन्होंने कहा था कि इसको पूर्ण सुरक्षित रखना। मैं इस पेटी की बात ही भूल गई। देखें, उस पेटी में क्या है?'
'मां, वह पेटी कहां है?'
'नगरी के बाहर वाले उद्यान के भवन में । मेरे मन में पुरुष-जाति के प्रति भयंकर द्वेष था, इसलिए मेरे पिताजी ने मुझे उस भवन में रखा था। मैंने उस पेटी को सुरक्षित रूप से एक कोठरी में रखा था। कल हम दोनों साथ जाकर उस पेटी को देखेंगे। उसमें क्या है, मैं कह नहीं सकती।'
'मां, पन्द्रह वर्ष बीत गए हैं। क्या वह पेटी सुरक्षित रही होगी?'
'हां, बेटा ! जब से मैं वहां से आयी हूं, तब से आज तक उस कोठरी को खोलने का प्रसंग ही नहीं आया। उस भवन की रक्षा के लिए वहां चार आदमी रहते हैं। मैं उस भवन में गई ही नहीं।'
'तो मां! अभी चलें।'
माता सुकुमारी ने हंसते-हंसते कहा- 'बेटा! यह बात याद आते ही हृदय की अधीरता बहुत बढ़ गई है। तुझे तो केवल अपने पिताश्री की जानकारी करनी है और मुझे तो सर्वस्व की जानकारी करनी है। किन्तु अभी रात बहुत बीत चुकी है। अभी वहां जाना उचित नहीं है। अब तू आराम से सो जा।' ।
___ देवकुमार मां को प्रणामकर अपनी शय्या पर जाकर सो गया। कुछ ही समय पश्चात् वह निद्राधीन हो गया। सुकुमारी को नींद नहीं आयी। उसे अतीत की स्मृति हो आयी। ‘पटयोग' राग और 'रागमंजरी' की अव्यक्तध्वनि कानों में गूंजने लगी। वह अतीत की स्मृति में खो गयी। एक-एक दृश्य उसकी आंखों के सामने नाचने लगा। विक्रम की स्मृति, विक्रमसिंह के साथ विवाह-सूत्र में बंधने की स्मृति आदि-आदि स्मृतियां एक-एक कर आने लगीं। इस प्रकार विचारों के सघन जंगल में भटकते-भटकते सारी रात बीत गयी। नित्य नियम के अनुसार वह उठी
और प्रात: कार्य से निवृत्त होने के लिए कक्ष से बाहर निकली। देवकुमार अभी निद्राधीन था।
शौच आदि से निवृत्त होकर सुकुमारी माता-पिता को प्रणाम करने गई। महाराजा शालिवाहन और महादेवी विजया दंतधावन कर रहे थे। सुकुमारी ने देवकुमार के पिताश्री द्वारा दी गई पेटी की बात कही। दोनों को बहुत प्रसन्नता हुई और महाराजा ने एक रथ तैयार करने की बात कही।
३४० वीर विक्रमादित्य