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________________ लोभ मनुष्य के विवेक को लील जाता है। रूपश्री तत्काल आम्रवन में गई और अपनी दो परिचारिकाएं और एक दास को साथ में ले लक्ष्मीवती के पास आयी। अपरिचित व्यक्तियों को आते देखकर लक्ष्मीवती खड़ी हो गई। वह कुछ प्रश्न करे, उससे पहले ही रूपश्री ने मधुर स्वर में कहा- 'मेरा भतीजा बहुत भाग्यशाली है...ऐसी पत्नी भाग्य से ही प्राप्त होती है और मेरा भतीजा कितना पागल है कि सगी बुआ का घर छोड़कर बाजार से खाद्य-सामग्री लाने गया है। पगला कहीं का ! अच्छा हुआ कि इसके फूफा इसको देख गए और उन्होंने घर आकर मुझे सारी बात कही। मैं अपना काम छोड़कर तुम्हारा स्वागत करने चली आई। चलो मेरे भवन पर और प्रवास की थकान दूर करो।' लक्ष्मीवती इस कुलटा के भीतर बसने वाले विष को पहचान नहीं पायी। निर्दोष मनुष्य सबको अपने जैसा ही मानता है। रूपश्री की वाक्-चातुरी के समक्ष लक्ष्मीवती लाचार बन गई। वह अपनी रत्नपेटिका लेकर बुआ के पीछे-पीछे नगरी की ओर चल पड़ी। उनके दास सारा सामान ऊंट पर लादकर रूपश्री के भवन की ओर चले। इस समय वीर विक्रम नगरी के एक नामी हलवाई की दुकान पर खड़े गरम पूरी तैयार करवा रहे थे। उनको यह कल्पना भी नहीं थी कि लक्ष्मीवती एक वेश्या के जाल में फंस जाएगी। ५२. भाग्य का खेल राजकन्या लक्ष्मीवती को साथ लेकर रूपश्री ने अपने भवन में प्रवेश किया। लक्ष्मीवती ने अपनी मूल्यवान रत्नपेटिका हाथ में ही ले रखी थी। भवन में प्रवेश करने के पश्चात् रूपश्री ने कहा- 'बेटी ! यह पेटी मुझे दे, मैं इसको सुरक्षित रख दूंगी।' 'आप इसकी चिन्ता न करें.....मेरे स्वामी कहां हैं?' 'मेरा पागल..... | चल मेरे साथ, वह अपने फूफा से बातें करता होगा।' कहकर रूपश्री लक्ष्मीवती का हाथ पकड़कर सोपान पर चढ़ने लगी। ऊपर की मंजिल में पांच-छह कक्ष थे....चार-पांच परिचारिकाएं भी थीं....लक्ष्मी ने सोचा, बुआ सुखी और समृद्ध प्रतीत होती है। एक कक्ष में प्रवेश करने के पश्चात् रूपश्री ने पूछा- 'बेटी! तेरा नाम क्या है?' 'लक्ष्मी....किन्तु वे कहां हैं ?' वीर विक्रमादित्य २६७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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