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प्रवास में चल पड़ना चाहिए। उसने राजकन्या की ओर देखकर कहा - 'देवी! सूर्योदय होने वाला है ..... अभी हमें बहुत दूर जाना है।'
‘ओह!' कहकर लक्ष्मीवती उठी और विक्रम की ओर दृष्टि कर कहा'आपकी नींद अजब है ! '
‘क्यों ? मैं तो पहले ही जाग गया हूं.... नींद तो तुम्हारी अजब लगती है ..... अब तुम प्रात: कार्य सम्पन्न करो....तुम्हारे पास अन्य वस्त्र नहीं हैं ?'
'जल्दबाजी में...'
'कोई बात नहीं.... मार्ग में कोई बड़ा गांव आएगा तो वहां से वस्त्र खरीद लेंगे - किन्तु एक बार भीमकुमार का थैला संभाल लूं। संभव है....'
'स्वामी!'
बीच में ही आश्चर्य व्यक्त करते हुए विक्रम ने कहा - 'एक भयंकर जुआरी को स्वामी कहती हो ?'
'हां, स्वामी - आप कोई भी हों, मेरे लिए आप प्राणेश्वर ही हैं। भाग्य से मुझे जो प्राप्त हुआ है, वह मेरे लिए वरदान रूप है ।'
'तुम बहुत उतावले में निर्णय लेती हो ?'
'जीवन में कभी-कभी शीघ्र निर्णय करना होता है । '
'अच्छा, किन्तु मैं तुम्हें सोचने का अवसर दूंगा.... तुम क्या कहना चाहती थी ?'
‘आपने भीमकुमार के थैले की बात कही थी, तो क्या भीमकुमार मुझे लेने आया था ?'
'हां, देवी! यह ऊंट उसी का है। संयोगवश मैंने भीमकुमार का रूप देख लिया था.... उसकी योजना भी जान गया था.... इसलिए मैंने एक जुआ खेला..... किन्तु अब तुम विलम्ब मत करो - अच्छा, ऐसा करो कि इस चादर को धारण कर स्नान कर लो, फिर ये वस्त्र ही पहन लेना ।'
राजकन्या ओढ़ने की कौशेय चादर लेकर नदी की ओर गई ।
विक्रम ने ऊंट को एक वृक्ष के साथ बांधा, जिससे कि वह वृक्ष के पात खा सके।
लगभग एकाध घटिका के पश्चात् राजकन्या प्रात: कर्म से निवृत्त होकर आ गई। विक्रम ने देखा-लक्ष्मीवती वास्तव में ही सौन्दर्य की रानी हैं, कमनीय है । विक्रम को अपनी ओर निहारते देखकर राजकन्या बोली- 'क्या देख
रहे हैं ?'
'तुम्हें देखकर मुझे मेरे भाग्य की चिन्ता हो रही है ।'
वीर विक्रमादित्य २६३