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'क्यों, प्रिये?'
'मैं आपकी धर्मपत्नी हूं। यही मेरे जीवन की सफल सिद्धि है। यदि नारी को अपने प्राणाधार के प्रति समर्पित होना हो, तो उसे नारी के सामान्य गौरव को महान् गिनना चाहिए। मंत्र, तंत्र और विभिन्न साधनाएं कभी-कभी अनिष्ट घटित कर देती हैं। कभी-कभी मानव अमानव बन जाता है। मैं अपने गौरव को विशुद्ध रखना चाहती हूं, इसीलिए मैंने अपनी सारी साधनाओं से मुंह मोड़ लिया है।'
'ओह प्रिये! मुझे क्षमा करना.....वास्तव में तुमने महान् त्याग किया है।' 'मेरी पराजय का परिणाम तो आना ही चाहिए।' देवदमनी ने कहा।
वीर विक्रम ने प्रिया को बाहुपाश में जकड़ते हुए कहा, 'प्रिये! बहुत बार विजय से भी पराजय में अधिक तृप्ति और आनन्द मिलता है। बहुत बार विजय मनुष्य को तोड़ देती है और अनेक बार पराजय भी विषरूप बन जाती है। किन्तु तुम्हारी पराजय में एक विजयी नारी का गौरव गुंथा हुआ है। तुम जैसे मेरी दासी बनी हो, वैसे ही मैं विजित होकर भी तुम्हारा किंकर बन गया हूं।'
बीच में ही देवदमनी बोल उठी, 'ऐसा कहकर आप मुझे नरक में न ढकेलें। आप मेरे इस लोक और परलोक के सर्वस्व हैं।'
विक्रम ने देवदमनी को दोनों हाथों पर उठा लिया।
और....?
दूसरे दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर विक्रम कमला रानी के खण्ड में आए, तब कलावती और देवदमनी वहीं बैठी थीं।
तीनों पत्नियों ने उठकर स्वामी का अभिवादन किया।
प्रातराश आ चुका था। प्रातराश करते-करते विक्रम ने पंचदंड छत्र की चर्चा की और यह भी कहा कि कल वेताम्रलिप्ति की ओर प्रस्थान करना चाहते हैं।
कमला रानी बोली, 'ताम्रलिप्ति बहुत दूर है।'
'इसकी मुझे चिन्ता नहीं है....मेरा मित्र कुछ ही क्षणों में मुझे वहां पहुंचा देगा।'
कलावती बोली-'महाराज! आपके किस बात की न्यूनता है, जो आप रत्नों के लिए इतना खतरा उठा रहे हैं?'
"प्रिये! मुझे रत्न-प्राप्ति की लालसा नहीं है, यह बात तुम सब जानती हो। परन्तु क्या करूं? मेरे मन में जो बात जम जाती है, उसको पूरा किए बिना चैन नहीं मिलता।'
तीनों रानियों ने अपनी-अपनी भावनाएं रखीं और अपने स्वामी की सफलता के लिए मंगल-कामना व्यक्त की।
वीर विक्रमादित्य २३६