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________________ वीर विक्रम ने नागदमनी का उचित सत्कार किया और उसको अपने एकांत खण्ड में ले गए। नागदमनी बोली- 'महाराज! मेरी पुत्री निर्मल और पवित्र है। आप इसकी पूरी सार-संभाल करना।' 'देवी! यह तुम्हारी कन्या है, पर मेरी धर्मपत्नी है, अर्धागिनी है। मैं अपने कर्तव्य को जानता हूं। तुम निश्चिन्त रहो। अब तुम मुझे पंचदंड छत्र की जानकारी दो।' _ 'हां, महाराज! इसीलिए मैं आयी हूं। किन्तु इससे पूर्व मैं एक प्रश्न पूछ लेती हूं।' 'अवश्य!' 'महाराज! पंचदंड छत्र की बात मात्र जाननी है या उसे प्राप्त भी करना है?' 'वह छत्र मुझे प्राप्त करना है।' 'महाराज! कार्य बहुत कठिन है। संभव है जीवन को खतरे में डालना पड़े और घोर विपत्ति का सामना करना पड़े।' 'देवी! विपत्ति के साथ खेलने में ही सच्ची मर्दानगी है। मेरा स्वभाव साहसिक है और मुझे कभी मौत का भय नहीं सताता।' 'आपके साहस से मैं परिचित हूं। मेरी पुत्री को हराने के लिए आपने कितना खतरा उठाया, यह बात आज सुबह मुझे देवदमनी ने बताई थी।' नागदमनी बोली। विक्रम हंस पड़े। नागदमनी ने बताना प्रारम्भ किया- 'राजराजेश्वर! पंचदंड वाले छत्र का निर्माण कुबेर ने करवाया था। एक बार उसने इस छत्र को एक विद्याधर राजा को उपहार-स्वरूप दिया। अनेक वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् यह छत्र मृत्युलोक में आया और दुर्योधन उसे प्राप्त करे, उससे पूर्व ही यह छत्र दस्युओं के हाथ लग गया। उसके झालर में लगे रत्न अलग कर दिए गए और पांचों दंडों को बिखेर दिया गया। आज वे पांचों दंड भिन्न-भिन्न स्थानों पर हैं.....झालर का रत्नसमूह वैसे ही पड़ा है। यदि यह दिव्य छत्र प्राप्त करना हो तो मैं जैसे कहूं, वैसे ही आपको करना होगा।' 'तुम जैसा कहोगी, वैसा ही करूंगा।' विक्रम ने सहर्ष कहा। 'यहां से लगभग आठ सौ कोस की दूरी पर ताम्रलिप्ति नाम की एक नगरी है। वह अत्यन्त स्वच्छ और मनोहारी है। वहां का राजा है चन्द्रभूप। उसकी कन्या का नाम है लक्ष्मीवती। वह राजभवन की सातवीं मंजिल में रहती है। उसके पास वीर विक्रमादित्य २३७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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