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________________ 'नहीं, ऐसा भाव नहीं है । ' ‘तो फिर इतना संकोच ?' 'जीवन के सहवास की पहली रात है इसलिए ।' 'ओह प्रिये ! लज्जा का कोई कारण नहीं है - चलो, हम आराम से बैठें।' दोनों स्वर्णजटित पलंग पर बैठे। विक्रम ने देवदमनी से कहा, 'प्रिये ! जब पहले दिन मैंने तुमको देखा था, उस क्षण से ही मेरा मन तुम्हारे प्रति आकर्षित हो गया था। आज मैं प्रसन्न हूं कि मुझे एक गुणवती पत्नी प्राप्त हुई है।' फिर विक्रम ने सिकोत्तर पर्वत पर पहुंचने आदि की सारी बात उसे अथ से इति तक बता दी। पूरी बात सुनकर देवदमनी स्वामी से लिपटकर बोली- 'आप बड़े खिलाड़ी हैं । ' 'तुम्हारे कजरारे नयनों ने मुझे खिलाड़ी बना डाला था। अब तुम्हें मुझे पंचदंड वाले छत्र की बात बतानी होगी । ' 'हां, स्वामी! कल मेरी मां आपसे मिलने आएगी और आपको उसका विवरण देगी। किन्तु वह छत्र छिन्न-भिन्न हो चुका है ... उसकी सारी सामग्री प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है । ' ‘प्रिये! देवताओं का दमन करने वाली और इन्द्र को प्रसन्न करने वाली तुम्हारे जैसी सुन्दरी, जो मेरे लिए स्वप्न जैसी ही थी, उसको मैं प्राप्त कर चुका हूं, तो पंचदंड वाले छत्र को प्राप्त करना मेरे लिए कठिन नहीं हो सकता। न जाने मेरा मन किस धातु से बना है कि मैं अशक्य को शक्य करने में अधिक रस लेता हूं।' 'मुझे विश्वास है कि आप अवश्य ही सफल होंगे।' देवदमनी ने प्रेम-भरे स्वरों में कहा । 'तुम्हारे विश्वास - बल के आधार पर मैं साहस करूंगा। मेरा मित्र अग्निवैताल मुझे पग-पग पर सहायता देगा।' यह कहकर विक्रम ने प्रिया को बाहुपाश में जकड़ लिया । देवदमनी अपने प्रियतम के तेजस्वी वदन की ओर देखने लगी । और... ।' शय्या में बिछे हुए पुष्प मधुर हास्य बिखेरते-बिखेरते श्रीहीन हो गए। यौवन का आज अभिनन्दन हुआ था। मोतियों की माला टूट गई और एक-एक मोती धरती पर बिखरकर हंसने लगा । दूसरे दिन मध्याह्न के पश्चात् नागदमनी अपनी पुत्री देवदमनी से मिलने आयी । कन्या ने अपने मन की प्रसन्नता व्यक्त की । फिर वह वीर विक्रम के । पास गई। २३६ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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