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'हां, कृपानाथ! देर रात तक दोनों महादेवियां आपकी प्रतीक्षा में जागती रहीं। क्या उन्हें जगाऊं?'
___ 'नहीं, तू मेरे वस्त्र तैयार कर । देख, इस पेटिका को संभालकर रखना। जब मैं शतरंज खेलने जाऊं, तब मेरे पास लाकर इसे रख देना।'
'जी' कहकर रामदास ने पेटिका को सुरक्षित रख दिया। फिर वह बाहर चला गया।
वीर विक्रम जब स्नानगृह में गए, तब दोनों रानियां जागृत हो बाहर आ गई थीं। जब उन्होंने रामदास के मुंह से महाराजा के आने की बात सुनी, तब वे निश्चिन्त हो गईं।
___ यथासमय वीर विक्रम उस छोटी पेटिका को लेकर शतरंज खेलने के मंडप में पहुंच गए। देवदमनी अभी वहां पहुंची नहीं थी।
विक्रम ने उस पेटिका को इस प्रकार रखा कि खोलने पर भी देवदमनी उसमें रखी हुई चीजें देख न सके।
वीर विक्रम के मानस पर अभी भी देवदमनी का नृत्यांगना का स्वरूप नाच रहा था। ऐसी महान् कला...ऐसा रूप और ऐसी सिद्धि मेरे ही राज्य की एक तेलिन लड़की में । विक्रम का हृदय आश्चर्य से भरा था। उन्होंने देवदमनी को क्षुब्ध करने का उपाय सोच लिया था।
। उसी समय मंडप का द्वार खुला। देवदमनी अपनी मां नागदमनी के साथ मंडप में प्रविष्ट हुई। विक्रम ने दोनों का स्वागत किया।
नागदमनी बोली- 'कृपानाथ! प्रात:कार्य सम्पन्न करने में कुछ विलम्ब हो गया था, इसलिए यहां कुछ विलम्ब से पहुंचे हैं। मैं क्षमा चाहती हूं।'
'नहीं-नहीं, नागदमनी ! संसारी प्राणियों के अनेक झंझट होते हैं। किसी दिन विलम्ब भी हो जाता है।' यह कहकर विक्रम ने देवदमनी की ओर देखा। देवदमनी अपने आसन पर बैठ गई। विक्रम ने पूछा-'देवदमनी! चित्त प्रसन्न तो हैन?'
_ 'हां, महाराज! मेरा चित्त अत्यन्त आनन्दित और आह्लादित है। आज मैं आपको दूसरी बार हराने के उत्साह के साथ आयी हूं।'
'तब तो मुझे बहुत आनन्द आएगा। यदि मैं हारूंगा तो भी सुन्दरी से पराजित होने का गौरव मिलेगा।'
शतरंज का खेल प्रारंभ हुआ।
आज शतरंज का खेल खेलते-खेलते महाराज विक्रम विचारमग्न हो जाते और विलम्ब से चाल चलते। इस प्रकार आठ-दस चाल चलने के पश्चात् देवदमनी
वीर विक्रमादित्य २२६