________________
वैताल-पत्नी ने कहा- 'महाराज! मैं जानती हूं। देवदमनी से पूर्व ही मुझे वृक्ष पर बैठ जाना है।'
वैताल और विक्रम भी आकाशमार्ग से उड़ चले। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी। तारों का मन्द प्रकाश पृथ्वी पर पड़ रहा था।
देवदमनी वृक्ष पर बैठ गई। वह विचित्र भाषा में कुछ मंत्र बोली और उसी क्षण वृक्ष विमान की भांति आकाश में उड़ने लगा। लगभग एक घटिका के बाद वह वृक्ष एक सरोवर के ऊपर से जा रहा था।
देवदमनी ने उस करंडक को एक डाली पर रखकर उसको हाथ से पकड़ रखा था। अचानक करंडक देवदमनी के हाथ से छूटा। देवदमनी चौंकी। नीचे विशाल सरोवर दिखाई दिया। अब क्या हो?
तारों के मंद प्रकाश में उसने देखा कि करंडक सरोवर में जा गिरा है। उपहारस्वरूप प्राप्त वस्तुओं का मिलना अब अशक्य है, यह उसने जान लिया। कुछ ही क्षणों में वृक्ष सरोवर को पार कर आगे बढ़ गया।
कार्य पूरा कर वैताल-पत्नी अदृश्य रूप से वृक्ष को छोड़कर अपने स्वामी की ओर उड़ गई।
अवंती के राजभवन में जब तीनों पहंचे तब प्रात:काल होने वाला ही था। वैताल ने देवदमनी को उपहार में प्राप्त तीनों वस्तुएं महाराज विक्रम को सौंप दीं। विक्रम ने उन्हें रुकने का आग्रह किया, पर वे रुके नहीं और कक्ष से ही अदृश्य हो गए।
विक्रम विश्राम करने के लिए एक आसन पर बैठे। प्रात:काल का समय हो गया।
राजगायकों ने प्रार्थनागान प्रारंभ कर दिया था। वाद्यकारों के वाद्य भी प्रात:काल का अभिनंदन कर रहे थे। दास-दासी जागृत होने लगे।
विक्रम ने एक दास को बुलाकर छोटी पेटिका मंगाई। वह महाराज को इतना जल्दी जागृत हुए देखकर आश्चर्यचकित रह गया। वह तत्काल गया और छोटी पेटिका ले आया। महाराजा विक्रम ने कहा- 'मेरे स्नान की तैयारी कर।' . दास प्रणत होकर चला गया। विक्रम ने उस छोटी पेटिका में सबसे नीचे गुटिका वाली स्वर्ण डिबिया, उसके ऊपर स्वर्ण नूपुर और उसके ऊपर पुष्पमाला रखी। फिर उस छोटी पेटिका को लेकर वे अपने खंड में गए। उसका निजी परिचारक रामदास उठ गया था। वह नमन कर बोला-'महाराज! लगता है आप अभीअभी पधारे हैं?'
'हां, रामदास ! महादेवी अभी सो रही हैं ?'
२२८ वीर विक्रमादित्य