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किन्तु यह दृश्य देखकर राजा विक्रम के मन में एक विचार उभरा। उन्होंने सोचा, इन दोनों ने मेरे पर महान् उपकार किया है और अन्नदान देकर मुझे जीवित रखा है। इसका यह परिणाम आया? दान और उपकार करने वालों को यदि ऐसा ही फल मिलता है तो दान और उपकार कल्पना मात्र रह जायेंगे।
इस प्रश्न पर विचार करने का समय नहीं था। वीर विक्रम ने दोनों शवों को गुफा के भीतर सावधानीपूर्वक एक ओर रख दिया। फिर विचारमग्न होकर उस खाट पर बैठ गए।
प्रात:काल हुआ। वन में पक्षियों ने प्रात:गान प्रारम्भ किया। विक्रम गुफा से बाहर निकले। उनके मन में इस दम्पति के अग्नि-संस्कार की भावना जागी। किन्तु वहां कोई दूसरा मनुष्य नहीं था। चारों ओर हरीतिमा और पक्षियों का कलरव था। वे स्वयं उस प्रदेश से बिल्कुल अनजान थे। किस ओर जाना है, इसका निर्णय न कर सकने के कारण वे एक चट्टान पर बैठ गए। उनके मन में विविध संकल्पविकल्प उठ रहे थे। उन संकल्पों में वे उन्मज्जन-निमज्जन कर रहे थे। उसी समय उनके कानों से अश्वों के पदचाप की ध्वनि टकराई। विक्रम तत्काल खड़े हुए और चारों ओर देखने लगे। कुछ ही समय के पश्चात् महाप्रतिहार और रक्षक, चारों ओर देखते-देखते, आते हुए दिखाई दिए। विक्रम ने जोर से चिल्लाकर कहा'अजय! अजय! इस ओर.....!'
अजय ने उस छोटी टेकड़ी की ओर देखा। वहां महाराज विक्रम को खड़े देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और तब सभी ने 'महाराज की जय हो' के घोष से सारे आकाश को गुंजा दिया। कुछ ही क्षणों में सभी टेकड़ी पर आ गए। महाराजा ने आते ही पूछा-'अजय! यहां कैसे आ गए?'
अजय बोला-'महाराज! हम कल मध्याह्न से ही आपके पीछे-पीछे चल रहे थे। किन्तु आपका अश्व वायुवेग से दौड़ रहा था। हम उसके साथ चल नहीं सके। सारी रात आपको ढूंढते-ढूंढते इधर आ गए।'
वीर विक्रम ने संक्षेप में सारी घटना बताई और फिर भील दम्पति का अंतिम दाह-संस्कार किया।
लगभग मध्याह्न के पश्चात् सभी अवंती की ओर प्रस्थित हुए और जब वे सब अवंती पहुंचे तब दूसरे दिन का प्रथम प्रहर बीत चुका था।
अपने महाराजा को सुरक्षित आए हुए जानकर अवंती के पौरजन अत्यन्त आनन्दित हो उठे। सारा देश प्रसन्नता से झूम उठा।
तीन महीने बीत गए।
इन्हीं दिनों एक पर्वतीय प्रदेश के राजा के जुल्मों के सामने युद्ध करने के लिए विक्रम को जाना पड़ा।
वीर विक्रमादित्य २०१