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दोनों वृक्ष के नीचे बैठ गए। योगी ने कहा- 'राजन् ! मैंने स्वर्ण-पुरुष को सिद्ध करने की साधना की है। यदि आप इस साधना में कुछ सहयोगी बनें, तो मेरा वर्षों का स्वप्न सिद्ध हो जाए।'
'मुझे सहयोग रूप में क्या करना होगा ?'
'केवल एक रात्रि का काम है । आगामी चतुर्दशी के दिन मुझे यह साधना सम्पन्न करनी है। उस रात यदि आप मेरे उत्तर- साधक बनते हैं तो मेरा बड़ा उपकार होगा ।'
विक्रम विचार - मग्न हो गए।
योगी बोला – ‘राजन्! मैंने आपकी यशोगाथा बहुत सुनी है। आप अनेक दु:खी-जनों की सहायता करते हैं, अनेक व्यक्तियों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। मेरे कार्य में आपको केवल एक रात देनी होगी। आप अवश्य कृपा करें ।'
‘योगिराज ! मुझे वहां क्या करना होगा ?'
'कोई खास बात नहीं है। जब मैं यज्ञ-कुण्ड के पास आराधना की अंतिम स्थिति में होऊं, उस समय आपको मेरी रक्षा करनी होगी। फिर मौन रहकर निकट से एक शव लाना होगा। मैं रात्रि के चौथे प्रहर में अंतिम आहुति दूंगा । उसी समय यज्ञ- कुण्ड की तीन बार प्रदक्षिणा कर आपको एक श्रीफल उस कुंड में डालना होगा । बस, मेरा कार्य पूरा हो जाएगा और अद्वितीय स्वर्ण-पुरुष तैयार हो जाएगा।' ‘योगिराज! आप तो वनवासी हैं, त्यागी हैं। आप स्वर्ण-पुरुष का क्या करेंगे ?'
'राजन् ! हम योगी-जन जो कुछ करते हैं, वह केवल स्वार्थ के लिए ही नहीं करते, परन्तु विश्व-कल्याण के लिए करते हैं। जो स्वर्ण-पुरुष निर्मित होगा, उसे मैं आपको ही समर्पित करूंगा।'
विक्रम ने विचार-मग्न होकर योगी के सुदृढ़ शरीर की ओर देखा। उसने सोचा, क्या योगी का कहना सच है ?
योगी बोला- 'आप किसी बात का संशय न करें। मेरी मंत्र-साधना निष्फल न हो, इसीलिए मैंने आप-जैसे समर्थ और निर्भीक पुरुष से प्रार्थना की है। ' विक्रम बोले- 'आप ऐसा न कहें। आप आज्ञा देने के अधिकारी हैं। मैं जरूर सहयोगी बनूंगा। मुझे कहां कैसे आना है और साथ में क्या-क्या लाना है, यह आप बताएं ।'
‘राजन्! मैं आज धन्यता का अनुभव कर रहा हूं। मेरी आशा पूर्ण होगी, यह निश्चित है । आप चतुर्दशी के दिन प्रात:काल यहां से प्रस्थान करें। एक अश्व इस वृक्ष के नीचे खड़ा रहेगा। उस पर सवार होकर आप बाहर निकलें। वह अश्व
वीर विक्रमादित्य १७६