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________________ उनका अपहरण करते हो। इसमें तुम्हारी क्या बहादुरी है? यदि किसी बहादुर मनुष्य से मुकाबला होता, तो तुम्हें मां का दूध याद आ जाता।' 'ओह शैतान ! कुत्ते ! तू मेरे कलेजे में आग लगा रहा है।' यह कहकर खर्परक खूंटी पर टंगी हुई अपनी तलवार संभाली। खर्परक की आंखें अत्यन्त लाल हो चुकी थीं। वह अपनी तलवार म्यान-मुक्त करे, उससे पहले ही विक्रम ने मद्य का भांड खर्परक पर फेंका। खर्परक के हाथ से तलवार छूटकर जमीन पर गिर पड़ी। मद्य का भांड फूट गया। खर्परक का शरीर मद्य से लिप्त हो गया और सारा कक्ष मदिरामय बन गया। खर्परक ने नीचे झुककर तलवार उठाई। विक्रम ने अपने शरीर पर लपेटे हुए चीथड़े उतार फेंके और वह मूल वेश में आ गया। उसने अपनी कमर पर लटकी हुई तलवार को म्यानमुक्त किया । खर्परक क्रोध के आवेश से पागल बन गया था। वह कड़कर बोला- 'तू कौन है ?' विक्रम बोला- 'मैं विक्रम हूं, तेरी मौत !' 'विक्रमो से विक्रम बन गया ? किन्तु आज तेरा शरीर मेरी तलवार का भोग बनेगा । तू अपने इष्टदेव का स्मरण कर ले।' 'अरे दुष्ट ! पापी ! शैतान ! तू अपने पापों को याद कर । आज तू मेरे हाथों मारा जायेगा । आज तक तूने केवल निर्दोष और सोये व्यक्तियों को ही पीड़ित किया है, किन्तु किसी वीर से मुकाबला नहीं हुआ। उठा अपने इस लोहे के टुकड़े कोमैं प्रहार करूं, इससे पूर्व तुझे प्रहार करने का अवसर देता हूं।' विक्रम ने कहा । 'अरे ओ परदेशी ! तुझे इतना अभिमान है ? तू मेरी प्रचण्ड शक्ति का अपमान कर रहा है। ले, अब तू अपने काल का ग्रास बन ।' यह कहकर खर्परक अपनी तलवार घुमाता हुआ विक्रम की ओर आगे बढ़ा। विक्रम ने एक छलांग लगाकर खर्परक के पहले प्रहार को व्यर्थ कर डाला । क्रोध के आवेग से हांफता हुआ खर्परक अपने वेग को संभाल नहीं सका और वह मदिरा के कीचड़ में फिसलकर नीचे गिर पड़ा। विक्रम हंस पड़ा। वह बोला, 'काल की झपट ! नादान ! उठ और तत्काल गुफा से बाहर चला जा ।' 'ओह!' कहकर खर्परक उठा और घायल सिंह की भांति विक्रम पर झपटा। विक्रम बोला- 'पागल ! संभल जा । यह रजपूती प्रहार है, कभी निष्फल नहीं जाता ।' वीर विक्रमादित्य १६३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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