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________________ 'महाराज! तीन दिनों से आपके मन में मांत्रिक चोर के विचार ही आ रहे हैं, इसलिए आपने यह कल्पना की है, किन्तु स्वप्नशास्त्र के अनुसार आपको श्रेष्ठ नारी की प्राप्ति होनी चाहिए।' भट्टमात्र ने कहा । विक्रम बोले- 'मुझे प्रतीत होता है कि आप अपनी ज्योतिष विद्या को भूलसे गए हैं, क्योंकि राजकार्य में आपकी बहुत व्यस्तता रहती है।' भट्टमात्र ने हंसकर कहा - 'महाराज ! जो विद्या आत्मसात् हो जाती है, वह कभी विस्मृत नहीं होती। वह जन्मान्तर तक भी साथ में रहती है। मैं आपको दावे के साथ कह सकता हूं कि आपको नारीरत्न की उपलब्धि होगी। यदि मेरी यह भविष्यवाणी असत्य हुई तो मैं ज्योतिष विद्या का त्याग कर दूंगा ।' ये शब्द सुनकर विक्रम ने अपने अश्व को रोककर कहा - 'महामंत्री ! तो हमें अब पुन: लौट जाना चाहिए। मुझे नारीरत्न की प्राप्ति हो चुकी है। ' भट्टमात्र बोला- 'महाराज ! आप उतावले न हों - यहां आए हैं तो खोजकर ...जाएंगे। मेरी गणना में भूल भी रह सकती है।' दोनों मित्र आगे बढ़े । लगभग दो कोस दूर जाने के पश्चात् विक्रम ने कहा, 'भट्टमात्र ! स्वप्न में मैंने ऐसा स्थान देखा था - सामने जो वटवृक्ष है, इसकी मुझे पूरी स्मृति है। मैं इसके पास से गुजरा था, ऐसा याद है ।' 'तो हम उसी ओर से चलें ?' दोनों ने अपने अश्वों को वटवृक्ष की ओर मोड़ा। कुछ दूर जाने पर अगोचर और झाड़-झंखाड़ के बीच एक कूप दिखाई दिया । विक्रमादित्य बोले - ‘मित्र ! मुझे यही कूप स्वप्न में दिखाई दिया था।' दोनों कूप के पास पहुंचे और अश्वों से नीचे उतरे। भट्टमात्र ने कहा - 'यह कूप तो सौ वर्ष पुराना प्रतीत होता है - इसका उपयोग कोई करता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता ।' 'ऐसा ही लगता है ।' कहकर विक्रम ने अपना अश्व एक ओर वृक्ष के तने से बांध किया। अश्व को बांध-बांधते महामंत्री ने कहा- 'महाराज ! हमें पूर्ण सावधानी पूर्वक कुएं के पास जाना चाहिए।' 'हां, किन्तु मैं अकेला ही जाऊंगा। तुम यहीं रुके रहो । ' 'नहीं, महाराज! मैं तो साथ ही चलूंगा ।' दोनों कुएं के पास पहुंचे । अचानक उन्होंने भयंकर आवाज सुनी - 'आओ, आओ, तुम्हारे में साहस हो, वीरत्व हो तो मेरे मुंह में फंसी हुई संसार की श्रेष्ठ सुन्दरी को ले जाओ।' १४६ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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