SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वियोग की कल्पना मात्र व्यक्ति को व्यथित कर देती है। वियोग जब सिर पर मंडराने लगा है तब वेदना का पार नहीं रहता। नगरी से एक कोस दूर चले जाने के बाद अग्निवैताल ने कहा-'महाराज! यदि आप अपना यथार्थ परिचय सुकुमारी देवी को दे देते तो इनके मन को....।' बीच में ही विक्रम ने कहा-'मित्र! मैं भी यही चाहता था। किन्तु मैंने इसका मन पढ़ लिया था। यदि मैं अपना असली परिचय दे देता तो इसके मन में मेरे प्रति पनपने वाला प्रेम रोष और तिरस्कार में परिणत हो जाता। इसको छह-छह भवों की वेदना का अनुभव है, इसलिए अल्पकालीन वियोग की व्यथा देना मुझे औचित्य लगा। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा माध्यम नहीं है।' .. 'आपका मध्यम मार्ग अत्युत्तम है-आप बहुत निपुण हैं। किन्तु इस वियोगकाल का अन्त तो आएगा ही। उस समय आपको अपना परिचय भी देना ही होगा। आप अवन्ती का त्याग कर प्रतिष्ठानपुर रहने वाले तो हैं ही नहीं?' वैताल ने कहा। ___ विक्रम ने अपने अश्वों को ठहराया और वैताल की ओर देखकर कहा'मित्र! मैंने तुमसे यह बात नहीं कही थी कि सुकुमारी सगर्भा हैं। उसके स्वप्न के आधार पर यह निश्चित है कि वह पुत्र को जन्म देगी। कोई भी नारी जब माता बनती है, तब वह वात्सल्यरूपी अमृत की सरिता बन जाती है। जहां वात्सल्य प्रवाहित होता है, वहां रोष या द्वेष टिक नहीं पाता । वह धुल जाता है। नारी ममता बनने के पश्चात् अधिक मंगलमयी बन जाती है, इसीलिए मैंने कालक्षेप के लिए यह योजना बनाई है।' वैताल आश्चर्य-भरी दृष्टि से विक्रम की ओर देखने लगा। थोड़े समय पश्चात् दोनों मित्रों ने अपने-अपने अश्वों को वायुवेग से दौड़ाया। बीस कोस चलने के पश्चात् वे एक सरिता के तट पर आए और वहां विश्राम करने के लिए ठहरे। घोड़ों को विश्राम देना भी आवश्यक था। वैताल बोला- 'महाराज, यदि आप अवंती के उद्यान में जाना चाहें तो हम पहुंच सकते हैं।' 'अभी?' 'हां, अभी। आपको कोई देख नहीं सकेगा और कुछ ही क्षणों में आप अवंती पहुंच जाएंगे। पुन: मुझे भी संध्या से पूर्व अपने स्थान पर पहुंचना है।' 'क्यों, मित्र?' 'हमारी जाति का सम्मेलन होने वाला है-मुझे अपने स्थान से कुछ सामग्री लेकर मैनाक पर्वत की तलहटी पर पहुंचना है। कम-से-कम तीस दिन तो मुझे वहां लग ही जाएंगे।' वैताल ने कहा। १३८ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy