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________________ पत्र पढ़कर उसके मन में एक प्रश्न उभरा-प्रियतम कब आएंगे? अभी दो-ढाई महीने तो लग ही जाएंगे। क्या मैं एक दासी के रूप में उनके पास नहीं जा सकती? किन्तु तत्काल उसका मन बोल उठा-नहीं, नहीं। स्वामी तो एक गरीब कलाकार का अभिनय कर रहे हैं-मैं उनके पास कैसे जाऊं? राजभवन की जवाबदारी भी कैसे छोडूं? ऐसा करना उचित नहीं है। यहीं रहकर उनकी प्रतीक्षा करनी है। मन जब चिन्तन के जाल में फंसता है, तब वह विविध मार्गों से उड़ता रहता है। इस प्रकार महारानी के हृदय में अनेक विचार उमड़ने लगे। महामंत्री और दोनों नर्तकी बहनों को सारा वृत्तान्त बताकर वैताल मध्यरात्रि के समय अदृश्य-रूप में राजभवन पहुंच गया। महारानी कमलावती अकेली अपने शयनकक्ष में शय्या पर लेटी हुई थी। सभी दासियां अपने-अपने स्थान पर सो गई थीं। मात्र पहरेदार इधर-उधर घूम रहे थे। वैताल सबसे पहले भोजन सामग्री वाले खण्ड में गया। वहां उसके लिए विभिन्न प्रकार की मिठाइयों से भरे थाल रखे थे। केसर-कस्तूरी वाले दूध से भरे दो घड़े भी थे। वैताल ने खाद्यसामग्री देखी। वह बहुत प्रसन्न हुआ। लम्बे समय के पश्चात् ऐसा भोजन उसे मिला था। वह भोजन को उदरस्थ करने लगा। खा-पीकर वह बहुत आनन्दित हुआ और अदृश्य रूप से महादेवी के खण्ड में चला गया। महादेवी अभी जागृत अवस्था में ही थी, किन्तु उनको वैताल दिखाई नहीं दे रहा था। वैताल प्रकट होकर बोला- 'महादेवी की जय हो! आज बहुत दिनों के बाद मन तृप्त हुआ है। महादेवीजी ! आज का भोजन मुझे बहुत याद आएगा।' कमलावती शय्या में बैठ गई। वैताल के प्रसन्न वदन को देखकर बोली'महापुरुष! तुम्हें जो ले जाना है, वह तैयार है।' "तो आप मुझे दें-यहां से मैं अपने स्थान पर जाऊंगा और प्रात:काल महाराजा विक्रमादित्य के पास पहुंच जाऊंगा।' महारानी अलंकारों से भरी वह पेटी वैताल के हाथों में सौंपती हुई बोली'पेटिका में एक ताड़पत्र रखा है। मेरे प्राणनाथ को कहना कि वे प्रसन्नहृदय से सुकुमारी के साथ विवाह कर यहां शीघ्र पधारें।' अग्निवैताल पेटिका लेकर वातायन मार्ग से अदृश्य हो गया। रानी कमलावती प्राणनाथ के विचारों में खो गई। महाराजा विक्रमादित्य शय्या का त्याग करें, उससे पूर्व ही वैताल उनके शयनकक्ष में पहुंच गया और उनकी रेशमी चादर को खींचते हुए बोला- 'महाराज की जय हो।' १२६ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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