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________________ महाराजा का संकेत पाकर महामंत्री ने प्रसिद्ध गायक जयकेसरी और विजयसिंह का परिचय उपस्थित लोगों को दिया । अंत में उन्होंने कहा‘राजकुमारीजी ने किसी प्रभावशाली कलाकार को पतिरूप में स्वीकार करने का निश्चय किया है । अब मैं दक्षिण भारत के महान् गायक आर्य जयकेसरी से प्रार्थना करता हूं कि वे पहले अपनी साधना का हमें रसास्वादन कराएं।' लोगों ने हर्षध्वनि की । महागायक जयकेसरी अपने स्थान पर खड़े हुए और सबको अभिवादन कर अपनी वाद्यमंडली को मालकोश स्वरलहरी प्रसृत करने का संकेत किया । सुषिरवाद्य, चर्मवाद्य, तारवाद्य, कांस्यवाद्य और काष्ठवाद्य बज उठे । मालकोश की स्वरलहरियां आकाश में थिरकने लगीं। अर्धघटिका के पश्चात् महान् गायक मालकोश की श्रुतियां प्रवाहित करने लगा। I सभी दर्शक मंत्रमुग्ध होकर एकटक गायक जयकेसरी को देख रहे थे। सभी उसकी आराधना पर आश्चर्यचकित थे । विक्रमादित्य भी इस गायक के प्रभाव से अभिभूत हो गए। उन्हें प्रतीत होने लगा कि इस महान् संगीत-साधक के समक्ष वे स्वयं कुछ भी नहीं हैं । चार घटिका पर्यन्त मालकोश की आराधना पर जयकेसरी ने उसको सम्पन्न किया। दर्शकों ने जय-जयकार से आकाश को गुंजा दिया। विक्रमादित्य ने भी खड़े होकर महान् कलाकार को धन्यवाद दिया । तदनन्तर महामंत्री ने दूसरे कलाकार विजयसिंह से अपनी कला प्रस्तुत करने की प्रार्थना की । विजयसिंह खड़ा हुआ। रूपमाला की वाद्यमंडली रंगमंच पर आ गई। विजयसिंह ने कहा- 'मैं आज रागमंजरी की आराधना प्रस्तुत करूंगा। इस राग का प्रभाव यह है कि जलकुंभ में भरा हुआ जल राग के स्वर- कल्लोलों के साथ उछलेगा और आपको आश्चर्यचकित कर देगा। आप धैर्यपूर्वक उसे देखें, सुनें ।' रागमंजरी की आराधना प्रारंभ हुई। एक घटिका के पश्चात् गायक विजयसिंह ने अपने मित्र अग्निवैताल की ओर देखा, वैताल समझ गया और कुछ ही क्षणों के पश्चात् जलकुंभ से जल उछलने लगा। दर्शक आश्चर्य से स्तम्भित रह गए। दूसरी घटिका बीत गई। जलकुंभ का जल और ऊंचा उछलने लगा। महान् गायक जयकेसरी भी इस आराधना से स्तम्भित हो गया। उसने आज तक रागमंजरी का नाम भी नहीं सुना था और ऐसा प्रभाव कभी नहीं देखा था। तीसरी घटिका पूरी हुई। रागमंजरी की आराधना सम्पन्न होने वाली थी । दर्शक जय-जयकार कर अपना हर्ष व्यक्त कर रहे थे । भावावेश में राजकन्या खड़ी हुई और माता-पिता को नमन कर बोली- 'इस गायक की साधना से मैं प्रसन्न हूं। आपकी आज्ञा हो तो मैं इसके गले में वरमाला पहनाऊं ?' १२२ वीर विक्रमादित्य -
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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