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रात आनन्दपूर्वक बीत गई।
दूसरे दिन दोनों मित्र रूपमाला के भवन में गए।
रूपमाला ने दोनों का सत्कार कर पूछा- 'क्या आज्ञा है ?'
विक्रमादित्य ने कहा- 'देवी! कुछ दिनों पूर्व अवंती की प्रख्यात गायिका विक्रमा आपके यहां अतिथि रूप में ठहरी थी ?'
'हां ।’
'वे मुझे मार्ग में मिली थीं- मैं भी एक गायक हूं और राजकन्या के साथ विवाह करने की भावना से यहां आया हूं। एक बात मैंने देवी विक्रमा को कही थी, तब उन्होंने आपसे मिलने की सूचना दी थी।'
'आपका शुभ नाम ?’ 'विजयसिंह । '
'नाम अच्छा है - दक्षिण भारत के प्रसिद्ध गायक जयकेसरी यहां आए
हुए हैं।'
'हां, देवी ! वे आज रात को मालकोश प्रस्तुत करेंगे और मैं रागमंजरी की आराधना करूंगा।'
रूपमाला ने चौंककर कहा - 'रागमंजरी..... ?'
'हां, किन्तु मेरे पास साज- सामग्री नहीं है। मैंने अपनी परिस्थिति देवी विक्रमा के सामने रखी, तब उन्होंने कहा कि देवी रूपमाला सारी व्यवस्था कर देंगी। इसीलिए मैं आपके पास आया हूं।'
'आपको जो साधन चाहिए, वे सब उपलब्ध हो जाएंगे।' रूपमाला ने कहा । 'देवी ! मुझे केवल आपकी वाद्यमंडली चाहिए, और कुछ नहीं ।' विजयसिंह
ने कहा ।
'मैं इसकी व्यवस्था कर दूंगी।'
दोनों मित्र अपने आवासस्थल पर आ गए।
रात्रि का प्रथम प्रहर पूरा हो, उससे पूर्व ही राजभवन का रंगमंडप मंत्रियों, कलाकारों, श्रेष्ठियों, सुभटों तथा अन्यान्य व्यक्तियों से खचाखच भर गया । रूपमाला, आचार्या मंजरी देवी तथा नगर की पांच-सात श्रेष्ठ गायिकाएं भी आ गई थीं ।
महाराजा शालिवाहन ने अपने परिवार के साथ रंगमंडप में प्रवेश किया। लोगों ने जय-जयकार से राजपरिवार का स्वागत किया। राजकुमारी सुकुमारी भी माता-पिता के साथ ही थी । उसके पीछे-पीछे एक दासी फूलमाला का एक स्वर्णथाल लिये चल रही थी। महाराजा, महादेवी, राजकुमारी, युवराज आदि सभी अपने-अपने निर्धारित स्थान पर बैठ गए।
वीर विक्रमादित्य १२१