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राजकन्या बोली - 'प्रिय सखी! जब मैं आठ-नौ वर्ष की थी, तब मुझे पूर्व-जन्मों की स्मृति हुई थी। इसी के आधार पर मैंने पूर्व छह जन्म देखे थे । मेरा वह अतीत इतना व्यथादायी था कि मैं उससे भयाक्रान्त हो गई। पल-पल वह मुझे पीड़ित करने लगा । मैंने उसको विस्मृत करने के लिए नृत्य और संगीत में मन लगाया और तेरह वर्ष की आयु में वह जाति-स्मृति - ज्ञान विलुप्त हो गया - किन्तु छह जन्मों की दु:खद स्मृति से मैं छुटकारा नहीं पा सकी - वह मेरे आत्म-प्रदेशों पर अंकित हो चुकी थी। मैंने अनेक प्रयत्न किये - संगीत की कठिन से कठिन साधना की, किन्तु पुरुषजाति के प्रति जो घृणा मन में उपज चुकी थी, वह उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। जो पुरुष मुझे प्यारभरी दृष्टि से देखता, उसका मैं वध करवा देती । मेरे माता-पिता बहुत दुःखी हो गए। वे मेरे विवाह के लिए चिन्तित हुए। मेरे लिए अलग व्यवस्था की गई। यहां यदि कोई पुरुष आता है तो उसकी मृत्यु निश्चित होती है । '
विक्रमा बोली- 'राजकुमारीजी ! ऐसी कौन-सी व्यथा आपने भोगी, जिसके कारण पुरुष जाति के प्रति इतनी घृणा पैदा हो गई ?'
'विक्रमा ! मैं तुम्हें यही तो बताना चाहती हूं-भगवान न करे, किसी को स्त्री की योनि मिले ।'
यह सुनकर विक्रमा हंस पड़ी ।
राजकुमारी ने पूछा- ‘हंसी कैसे आयी ?'
'आप बहुत संवेदनशील हैं। यदि स्त्री पैदा न हो तो सृष्टि ही समाप्त हो जाए। जीवन का आनन्द धूल में मिल जाए। आशा और आनन्द के गीत जलकर राख हो जाएं ।' विक्रमा ने कहा ।
सुकुमारी ने विक्रमा का हाथ पकड़ते हुए कहा - 'विक्रमा ! इतनी अधीर मत बनो। मैंने अभी अपने पूर्वभवों का परिताप बताया ही कहां है ?' विक्रमा सरलहृदया राजकुमारी की ओर देखने लगी ।
सुकुमारी ने कहा- 'ऐसे तो यह जीव अनन्त जन्म कर चुका है, परन्तु जाति - स्मरण - ज्ञान की एक मर्यादा है। इससे केवल सात भव ही जाने जा सकते हैं। एक भव की बात तुम्हें बता रही हूं। लक्ष्मीपुर नाम का नगर । कोट्याधीश धन नाम का श्रेष्ठी । मेरा विवाह उसके साथ हुआ। मेरा नाम था श्रीमती । जब लड़की पहली बार ससुराल जाती है, तब उसके मन में कितनी महत्त्वाकांक्षाएं होती हैं। हृदय में आशा का संगीत होता है। किन्तु सुहागरात की पहली घड़ी । पतिदेव शयनकक्ष में आए। आते ही कहा- 'देखो! पिता के घर से जो गहने पहनकर आयी हो, उन्हें उतारकर पेटी में रख दो। क्योंकि गहने यदि प्रतिदिन पहने जाते हैं, तो वे घिस
वीर विक्रमादित्य ६७