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'मिलन!' 'किसका मिलन?'
'पुरुष और प्रकृति का। इस ओर देखो, सूर्यास्त हो गया है। कमल मुकुलित हो गया है, किन्तु मिलन की माधुरी में अलमस्त बना हुआ भ्रमर पंकज की गोद में समा गया है। प्राण गंवाने का भय होते हुए भी भ्रमर अपनी प्रियतमा की व्यवस्था को काटकर बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं हैं मजबूत काठ को भेद देने वाला भ्रमर फूल की कोमल पंखुड़ियों को भेदने के लिए तैयार नहीं है। अद्भुत! अद्भुत!'
'सखी!' सुकुमारी के स्वर में हल्का-सा रोष था। 'क्या, राजकुमारीजी?'
'तुम्हें मेरे सात-सात भवों की पीड़ा का अहसास नहीं है... । तुम मेरे सामने पुरुष के विषय की कोई भी चर्चा कभी मत करना।'
'मैं समझी नहीं।' 'मुझे पुरुष जाति के प्रति पूर्ण घृणा है।' 'बिना कारण ही?' 'कारण बहुत प्रबल है-कभी समझाऊंगी।'
'राजकुमारीजी! आज ही, अभी ही समझाएं-चलिए, हम इस वृक्ष के नीचे बैठती हैं। आप जब तक नहीं बतलाएंगी तब तक मेरा चित्त अशान्त रहेगा। विक्रमा ने कहा।
'अच्छा तो हम भवन में चलें । मेरी बात कुछ लम्बी है।' 'अच्छा।' विक्रमा ने कहा।
और दोनों भवन की ओर प्रस्थित हो गईं।
विक्रमा ने देख लिया था कि पूरे भवन में एक भी पुरुष नहीं था। रक्षा का काम भी स्त्रियां ही करती थीं।
विक्रमा को साथ लेकर राजकुमारी अपने बैठक कक्ष में आयी। वह प्रकाश से भरा हुआ था।
राजकुमारी ने विक्रमा को अपने पास बैठने के लिए कहा।
सुकुमारी ने वहां खड़ी दोनों परिचारिकाओं को संकेत किया और वे दोनों कक्ष के बाहर चली गईं। फिर उसने विक्रमा का हाथ पकड़कर कहा-'सखी! पुरुष स्वार्थी ही होता है-मेरा यह अनुभव आज का नहीं है, सात-सात जन्मों का है। मेरा अनुभव सुनकर तुम स्वयं कहोगी कि पुरुष स्वार्थी ही होता है।'
विक्रमा राजकुमारी को एकटक निहार रही थी। अग्निवैताल कभी का भट्टमात्र के पास पहुंच गया था। वह भोजन कर मध्यरात्रि में आने वाला था। ६६ वीर विक्रमादित्य